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स्वयंभू स्तोत्र टीका तो मात्र सत्य उपाय बताने वाले हैं । जो कोई उस पर विश्वास करेगा और पुरुषार्थ करके उसीका सेवन करेगा, तथा वैसा ही सेवन करेगा जैसा-श्री अर्हत भगवान ने कहा था तो अवश्य वह कर्मों का नाश करके कभी न कभी मुक्त हो जायगा। जो लोग ऐसा समझ लेते हैं कि परमात्मा भक्त को पार कर देता है चाहे वह मोक्ष का साधन न भी करे सो बात इस कथन से हट जाती है । प्रात्मशुद्धि अपने ही प्रात्मध्यान रूपी पुरुषार्थ से होती है यह नियम हैं । इसके बिना न आज तक किसी को हुई हैं, न होगी, न होती है । स्वतत्रता का एक ही मार्ग है और वह आत्म-स्वातंत्र्यका अनुभव है। यही बात यहां प्रगट की है। क्योंकि श्री संभवनाथ स्वामी वैद्य के समान यथार्थ उपाय बतानेवाले हैं, इसलिये बारबार नमस्कार व स्तवन करने योग्य हैं । वास्तव में अपना उद्धार आप से ही होता है। जैसा श्री पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश में कहा है:स्वस्मिन सदभिलाषित्त्वादभीष्टजायकत्वतः । स्वयं हितप्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मनः ॥३४॥
अर्थात् प्रात्मा का निश्चय गुरु आत्मा ही हैं, क्योंकि अपने ही भीतर अपने हित की वांछा होती है, तथा प्रापको ही मोक्ष के उपाय का ज्ञान भी करना पड़ता है व आपको ही अपने हित के लिये प्रयोग करना पड़ता है । वास्तव में श्री अर्हतदेव, निम्रन्थ गुरु व शास्त्र प्रादि बाहरी प्रेरक व उदासीन निमित्त हैं । जो स्वयं पुरुषार्थ न करेंगे वे कदापि शिवधी न लहेंगे।
भुजंगप्रयात छन्द। तुही सौख्यकारी, जगतमें नरों को, कुतृष्णा महाव्याधि, पीड़िन जनों को। .. अचानक परम वैद्य है, रोगहारा, यथा वैद्य ने दोनका रोग टारा ॥११॥
: उत्थानिका-जिस जगत के प्राणियों के भगवान् अचानक वैद्य हैं वे जगत के प्राणी कैसे दुखी हैं सो बताते हैं
अनित्यमत्रारणमहंक्रियाभिः प्रसक्तमिथ्याध्यवसायदोषम् । इदं जगज्जन्मजरान्तकात निरञ्जनां शान्तिमजीगमस्त्वम् ॥१३॥
अन्वयार्थ-(इदं जगत्) इस दीखने वाले जगत के प्राणियों की (अनित्य) जो किसी भी शरीर में सदा रह नहीं सकते अर्थात पर्याय की अपेक्षा जो नाशवत हैं। (अत्राणं) व जिनका कोई मरण से व तीन दुःखों के तहने से रक्षा करने वाला नहीं है तथा (अहं क्रियाभिः प्रसक्तमिथ्याध्यवसायदोपम्) जो शरीर की अवस्था में अहंकार बुद्धि व स्त्री पुत्रादि धन प्रादि में ममकार बुद्धि रखने से मिथ्या अभिप्राय के दोष से दूषित है