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स्वयंभू स्तोत्र टीका
की उसमें इतने गुण थे-एक तो उनके तीव्र उत्कण्ठा थी कि हम इस प्रसार व पराधीन व कटुक संसार से पार होकर स्वतन्त्रता प्राप्त करें। दूसरे वे बड़े वीर थे. इक्ष्वाकु वंश के शिरोमणि क्षत्रिय शूर थे। तीसरे वे इन्द्रिय व मन को विजय करके श्रात्मा में श्रात्मस्थ होने वाले थे, चौथे वे किसी के प्राधीन न थे, पूर्ण स्वतन्त्र थे, पांचवें वे २२ परीषहों को सहने के लिए पूर्ण समर्थ थे, छठे वे घोर उपसर्ग श्राने पर भी अपने व्रत व तप में व ध्यान में निश्चल रहने वाले थे । ऐसे राजपुत्र ने उस पृथ्वी को छोड़ा जो समुद्र पर्यन्त फैली हुई थी व जो उनके पास थी हो तथा जो दूसरे से भोगी नहीं गई थी, उसको भी उसी तरह छोड़ा जिस तरहप्रपनी स्त्रियोंको त्यागा और साधु का चारित्र धार लिया। यहां पृथ्वी की उपमा महिला से दी है। पृथ्वी का वस्त्र समुद्र का पानी था । स्त्री का श्रावरण वस्त्र होता है । जैसे स्त्री सती व पतिव्रता होती है वैसे वह पृथ्वी दूसरे से प्रभोक्ता व विद्यमान अपनी थी। न होती को नहीं छोड़ा था, होती को छोड़ा था । कुलटा स्त्री को छोड़ना सुगम है, परन्तु पतिव्रता को छोडना कठिन है । न होती हुई वस्तु को छोड़ना सुगम है, होती हुई को त्यागमा कठिन है । प्रभु ने बड़ा भारी साहस किया जो अपने पास होने वाली निष्कंटक समुद्र पर्यन्त राज्य पृथ्वी को त्याग दिया । और प्राकुलता मिटाकर निराकुल हो आत्म ध्यान करने का पुरुषार्थ किया। इस श्लोक में यह बात सूचित की है कि जो मुनिपद धारण करे उसमें ऊपर लिखी योग्यता होनी चाहिये । उसमें मुमुक्षुपना, जितेंद्रियपना, स्वाधीनपना, सहनशीलता व प्रतिज्ञाबद्धपना अवश्य होना उचित है । जो इतने गुणों का धारी न होगा वह कदाचित् विषय वासना के प्राधीन हो जायगा, दुःखों के पड़ने पर घबढ़ा जायगा व संयम से भ्रष्ट हो जायगा । जो ख्याति, पूजा, लाभादि के प्राधीन होकर साधु होगा वह कभी भी साधु का व्रत नहीं पाल सकता । उसकी वृत्ति में स्वाधीनता हो, मात्र स्वहित विचार कर ही तपस्या करता हो। ऐसा ही मुनि मोक्ष मार्गी है । जो अंतर्मुहूर्त से अधिक प्रसाद में नहीं रह सकता है, जिसके अंतमुहूर्त पीछे ध्यानावस्था सप्तम गुणस्थान के योग्य होती ही हो, जो सर्व रसों का त्यागी होकर एक आत्मरस का पिपासु हो वही जैन का साधु होने योग्य है । दिखलाया यह है कि प्रभु में दीक्षा लेते वक्त मुनि के योग्य सर्वश्रेष्ठ गुण मौजूद थे ।
श्री गुणभद्राचार्य श्रात्मानुशासन में साधु के गुरण कहते हैं
यम-नियम- नितान्तः शान्त बाह्यान्तरात्मा । परिणामितसमाधिः सर्व सत्वानुकम्पी | विहितहितमिताशी क्लेशजाल समूलं । दहति निहित निद्रो निश्चिताध्यात्मसारः ॥ २३ ॥ भावार्थ — जो साधु यम नियम में तल्लीन है, जिसका अन्तरङ्ग बहिरङ्ग सर्व श