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श्री प्रादिनाथ स्तुति परमात्म पद को पावे व हमारे द्वारा जगत के प्राणी भी लाभ उठा सकें। ऐसी स्तुति अपने आपको परम पद के लाभ के लिए उत्सुक बनाने वाली है ।
- गीता छन्दजो हुए हैं प्ररहंत प्रादी स्वयं बोध सम्हार के। परम निर्मल ज्ञानचक्षु प्रकाश भवतम हारके ।। निज पूर्ण गुणमय वचन करसे.जग अज्ञान मिटा दिया । सो चन्द्र सम भवि जीव हितकर,जगतमाहिं प्रकाशिया।
उत्थानिका-मागे कहते हैं कि भगवान गृहस्थ अवस्था में रहे फिर उनको संसार से पैराग्य हुग्रा- ...
प्रजापतियः प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो ममत्वतो निविविवे विदांवरः ॥२॥
अन्वयार्थ-(यः) जो (प्रथम) इस अनपिणी काल के चतुर्थ काल में होने वाले सर्व राजाओं में प्रथम (प्रजापतिः) प्रजा के स्वामी थे । जिन्होंने (जिजीवितः प्रजा) जीने की इच्छा रखने वाली प्रजा को (कृष्यादिषु कर्मसु) खेती सेवा प्रादि श्राजीविका के उपायों के करने की (शशास) शिक्षा दी अर्थात् प्रजा को कृषि प्रादि षट्कर्मों में जोड़ दिया । (पुनः) फिर (प्रबुद्धतत्त्वः) तत्त्वज्ञानी अर्थात् त्यागने योग्य व ग्रहण करने योग्य तत्त्व को मानने वाले व (अद्भुतोदयः) आश्चर्यकारी पुण्य को रखने वाले जिनके गर्भ जन्मादि फल्याणक इन्द्रादिक देवों ने बड़ी भक्ति से किये ऐसे (विदांवरः) तत्त्वज्ञानियों में या प्रात्मज्ञानियों में प्रधान श्री ऋषभदेव भगवान (ममत्वतः) संसार के मोह से व परिग्रह के ममत्व से (निर्विविदे) विरक्त होगए ।
नोट-संस्कृत टीकाकार ने यहां प्रबुद्धतत्त्व के दो प्रर्थ किये हैं। एक तो यह कि वे ऋषभदेव भगवान मति श्रत अवधि तीन ज्ञान के धारी थे व प्रजा के हित अहित को-उनके भाग्य को व उनके कर्तव्य को व किसे क्या करना चाहिये व कौन किसके योग्य है,इस बात को जानते थे। दूसरा अर्थ यह किया है कि त्यागने योग्य व ग्रहण करने योग्य तत्त्व के स्वरूप को जानते थे ।
भावार्थ--सनातन जैन सिद्धान्त के अनुसार भरतक्षेत्र के हरएक अवसपिणी व उत्सपिणी काल में चौबीस तीर्थकर महापुण्याधिकारी हुमा करते हैं। इस वर्तमान प्रवसपिरणी काल के तीसरे काल के अन्त में अर्थात् जब उसमें ८४ लाख पूर्व और तीन वर्ष साढ़े आठ मास शेष थे तब श्री भएषभदेव भगवान यहां गर्भ में आये । उस समय इन्द्रादि