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परमात्मप्रकाश
टीकाकारका अंतिम कथन ।
पंडवरामहं णरवहिं पुज्जिउ भत्तिभरण । सिरिसासणु जिणभासियउ णंदउ सुक्खस एहिं ॥१॥
[ पाण्डवरामैः नरवरैः पूजितं भक्तिभरेण । श्रीशासनं जिनभाषितं नन्दतु सुखशतैः ॥१॥ ]
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इस ग्रन्थ में बहुधा पदोंकी संधि नहीं की, और वचन भी जुदे जुदे सुख से समझनेके लिये रक्खे गये हैं, समझने के लिये कठिन संस्कृत नहीं रक्खी, इसलिये यहां लिंग, वचन, क्रिया, कारक, संधि, समास, विशेष्य, विशेषण के दोष न लेना । जो पंडितजन विशेषज्ञ हैं, वे ऐसा समझें, कि यह ग्रन्थ बालबुद्धियोंके समझाने के लिये सुगम किया है । इस परमात्मप्रकाशकी टीकाका व्याख्यान जानकर भव्यजीवोंको ऐसा विचार करना चाहिये, कि मैं सहज शुद्धज्ञानानन्द स्वभाव निर्विकल्प हैं, उदासीन हूँ, निजानन्द निरञ्जन शुद्धात्म सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप निश्चयरत्नत्रयमयी निर्विकल्पसमाधिसे उत्पन्न वीतराग सहजानन्दरूप आनन्दानुभूतिमात्र जो स्वसंवेदनज्ञान उससे गम्य हूँ, अन्य उपायोंसे गम्य नहीं हूँ । निर्विकल्प निजानन्द ज्ञानकर ही मेरी प्राप्ति है, पूर्ण हैं । राग, द्व ेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ पांचों इन्द्रियोंके विषय व्यापार, मन वचन काय, द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्म ख्याति पूजा लाभ, देखे सुने और अनुभवे भोगोंकी वांछारूप निदानवन्ध, माया मिथ्या ये तीन शल्यें इत्यादि विभाव परिणामोंसे रहित सब प्रपंचोंसे रहित मैं हूँ । तीन लोक, तीन कालमें, मन वचन कायकर, कृत कारित अनुमोदनाकर, शुद्ध निश्चयसे में आत्माराम ऐसा हूँ | तथा सभी जीव ऐसे हैं । ऐसी सदैव भावना करनी चाहिये ।
अब टीकाकार के अन्तके श्लोकका अर्थ कहते हैं- युधिष्ठिर राजाको आदि लेकर पांच भाई पांडव और श्रीरामचन्द्र तथा अन्य भी विवेकी राजा हैं, उनसे अत्यन्त भक्ति कर यह जिनशासन पूजनीक है, जिसको सुर नाग भी पूजते हैं, ऐसा श्रीजिन