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तथा निश्चयंनयसे केवलज्ञानादि अनन्तगुण सहित परमात्मपदार्थका (अनुदिनं ) सदैव ( नाम गृह्णन्ति ) नाम लेते हैं, सदा उसीका स्मरण करते हैं, (तेषां ) उनका (मोहः) निर्मोह आत्मद्रव्यसे विलक्षण जो मोहनामा कर्म ( झटिति त्रुट्यति) शीघ्र ही टूट जाता हैं, और वे (त्रिभुवननाथा भवंति ) शुद्धात्म तत्त्वकी भावना के फलसे पूर्व देवेन्द्र चक्रवर्त्यादिकी महान विभूति पाकर चक्रवर्तीपदको छोड़कर जिनदीक्षा ग्रहण करके केवलज्ञानको उत्पन्न कराके तीन भुवनके नाथ होते हैं, यह सारांश है ।। २०६ । ।
परमात्मप्रकाश
एवं चतुर्विंशतिसूत्र प्रमितमहास्थलमध्ये परमात्मप्रकाशभावना फलकथन मुख्यत्वेन सूत्रत्रयेण पञ्चमं स्थलं गतम् ।
अथ परमात्मप्रकाश शब्दवाच्यो योऽसौ परमात्मा तदाराधकपुरुपलक्षणज्ञापनार्थं सूत्रत्रयेण व्याख्यानं करोति । तद्यथा-
11.
जे भव- दुक्खहं बीहिया पर इच्छहिं णिव्वाणु |
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इह परमप्प-पयासयहं ते पर जोग्ग विया ॥ २०७॥
ये भवदुः खेभ्यः भीताः पदं इच्छन्ति निर्वाणम् ।
"इह परमात्मप्रकाशकस्य ते परं योग्या विजानीहि ॥२०७॥ इस प्रकार चौबीस दोहोंके महास्थल में परमात्मप्रकाशकी भावना के फल के कथनको मुख्यतासे तीन दोहोंमें पांचवां अन्तरस्थल कहां
न
आगे परमात्मप्रकाश शब्दसे कहा गया जो प्रकाशरूप शुद्ध परमात्मा उसकी आराधना करनेवाले महापुरुषोंके लक्षण जाननेके लिये' तीन दोहोंमें व्याख्यान करते हैं— (ते परं) वे ही महापुरुष (अस्य परमात्मप्रकाशकस्य ) इस परमात्मप्रकाश ग्रन्थके अभ्यास करनेके (योग्याः विजानीहि ) योग्य जानो, (ये) जो ( भवदुःखेभ्यः) चतुर्गतिरूप संसारके दुःखोंसे ( भीताः ) डर गये हैं, और ( निर्वाणं पदं ) मोक्षपदको ( इच्छंति ) चाहते हैं ।
भावार्थ - व्यवहारनयकर परमात्मप्रकाशनामां ग्रन्थकी और निश्चयनयकर निर्दोष परमात्मतत्त्वको भावनाके योग्य वे ही हैं, जो रागादि विकल्प रहित परम आनन्दरूप शुद्धात्मतत्त्वकी भावना से उत्पन्न हुए अतीन्द्रिय अविनश्वर सुखसे विपरीत जो नरकादि संसारके दुःख उनसे डर गये हैं, जिनको चतुर्गति के भ्रमणका डर है, और जो सिद्धपरमेष्ठी के निवास मोक्षपदको चाहते हैं ||२०७१।