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परमात्मप्रकाश
भावार्थ-आत्मस्वभाव महानिर्मल है, भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्ग ये सब जड़ हैं, आत्मा चिद्र प है । अनन्त ज्ञानादि गुणरूप जो चिदानन्द उससे तू सकल प्रपंच भिन्न मान ।।१७६।।
अथ तामेव देहात्मनोर्भेदभावनां द्रढयति
जेम सहाविं हिम्मलउ फलिहउ तेम सहाउ। भंतिए मइलु म मरिण जिय मइलउ देवाववि काउ ॥१७७॥ यथा स्वभावेन निर्मलः स्फटिकः तथा स्वभावः ।
भ्रान्त्या मलिनं मा मन्यस्व जीव मलिनं दृष्ट्वा कायम् ।।१७७।।
आगे देह और आत्मा जुदे-जुदे हैं, यह भेद-भावना दृढ़ करते हैं--(यथा) जैसे (स्फटिकः) स्फटिकमणि (स्वभावेन) स्वभावसे (निर्मलः) निर्मल है, (तथा) उसीतरह (स्वभावः) आत्मा ज्ञान दर्शनरूप निर्मल है । ऐसे आत्मस्वभावको (जीव) हे जीव, (कायं मलिनं) शरीरकी मलिनता (दृष्ट्वा) देखकर (भ्रांत्या) भ्रमरी (मलिनं) मैला (मा मन्यस्व) मत मान ।
___भावार्थ-यह काय शुद्ध बुद्ध परमात्मपदार्थसे भिन्न है, काय मैली है, आत्मा निर्मल है ।।१७७॥
अथ पूर्वोक्तभेदभावना रक्तादिवस्त्रदृष्टान्तेन व्यक्तिकरोति चतुष्कलेनरत्तें वत्थे जेम वुहु देव ण मरणाइरत्तु । देहिं रतिं णाणि तहं अप्पु ण मराणा रत्तु ।।१७।। जिगिंण वस्थि जेम बुहु देहु ण मगणइ जिराणु । देहिं जिगिंण णाणि तहं अप्पु ण मगगाड़ जिगरगु ।।१७६।। वत्थु पणइ जेम वुहु देहु रा मगगाइ ? । ग? देहे गणाणि तह अप्पु ण मगगाइ टु ॥१८०॥ भिगाउ वत्थु जि जेम जिय देहहं मराणइ गाणि । देह वि भिगाउं णाणि तहं अपहं मगणइ जाणि ॥१८॥