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परमात्मप्रकाश
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देवस्वरूप हूँ, (य अहं) जो मैं हूँ, (सपरः परमात्मा) वही उत्कृष्ट परमात्मा है । (इत्थं) इस प्रकार (निर्धान्तः) निस्सन्देह (भावय) तू भावना कर ।
भावार्थ-जो कोई एक परमात्मा परम प्रसिद्ध सर्वोत्कृष्ट अनन्तज्ञानादिरूप लक्ष्मीका निवास है, ज्ञानमयी है, वैसा ही मैं हूं। यद्यपि व्यवहारनयकर मैं कर्मोसे बंधा हुआ हैं, तो भी निश्चयनयकर मेरे वन्ध मोक्ष नहीं है, जैसा भगवान्का स्वरूप है, वैसा ही मेरा स्वरूप है। जो आत्मदेव महामुनियोंकर परम आराधने योग्य है, और अनन्त सुख आदि गुणोंका निवास है। इससे यह निश्चय हुआ कि जैसा परमात्मा वैसा यह आत्मा और जैसा यह आत्मा है, वैसा ही परमात्मा है । जो परमात्मा है, वह मैं हूँ, और जो मैं हूं, वही परमात्मा है । अहं यह शब्द देहमें स्थित आत्मा को कहता है । और सः यह शब्द मुक्ति प्राप्त परमात्मामें लगाना । जो परमात्मा वह मैं हूं, और मैं हूँ सो परमात्मा-यही ध्यान हमेशा करना। वह परमात्मा परमगुणके सम्बन्धसे उत्कृष्ट है।
श्री योगीन्द्राचार्य प्रभाकरभट्टसे कहते हैं, कि हे प्रभाकर भट्ट, तू सब विकल्पों को छोडकर केवल परमात्माका ध्यान कर । निस्सन्देह होके इस देहमें शुद्धात्मा है. ऐसा निश्चय कर । मिथ्यात्वादि सब विभावोंकी उपशमताके वशसे केवलज्ञानादि उत्पत्तिका जो कारण समयसार (निजआत्मा) उसीकी निरन्तर भावना करनी चाहिये । वीतराग सम्यक्त्वादिरूप शुद्ध आत्माका एकदेश प्रगटपनेको पाकर सब तरह से ज्ञान की भावना योग्य है ।।१७।।
अथामुमेवार्थं दृष्टान्तदान्तिाभ्यां समर्थयतिणिम्मल-फलिहहं जेम जिय भिण्णउ परकिय-भाउ । अप्प-सहावहं तेम मुणि सयलु वि कम्म-सहाउ ॥१७६।। निमलस्फटिकाद् यथा जीव भिन्नः परकृतभावः ।
मात्मस्वभावात् तथा मन्यस्व सकलमपि कर्मस्वभावम् ।।१७६।।
आगे इसी अर्थको दृष्टान्त-दाटन्तिसे पुष्ट करते हैं-(जीव) हे जीव, (यथा) जैसे (परकृतभावः) नीचेके सब डंक (निर्मलस्फटिकात्) महा निमंल स्फटिकमणिने (भिन्नः) जुदे है, (तथा) उसी तरह (आत्मस्वभावात्) आत्मस्वभावसे (सकलमपि) सब (कर्मस्वभावं) शुभाशुभ कर्म (मन्यस्व) भिन्न जानो।