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________________ २५८ ] परमात्मप्रकाश परमात्माके शुद्ध भाव हैं, वे चिंताके बिना छोड़े नहीं होते । तीर्थङ्करदेव भी मुनि होते निश्चिन्त व्रत धारण करते हैं, तभी परमहंस दशा पाते हैं, ऐसा व्याख्यान जानकर देखे सुने भोगे हुए भोगोंकी वांछा आदि समस्त चिता-जालको छोड़कर परम निश्चिन्त हो, शुद्धात्मकी भावना करना योग्य है ।। १७० ।। अथ - जोइय दुम्मइ कवण तुहं भवकारणि ववहारि । वंभु पवंचहिं जो रहिउ सो जाणवि मणु मारि ।। १७१ ।। योगिन् दुर्मतिः का तव भावकारणे व्यवहारे । ब्रह्म प्रपंचैर्य रहितं तत् ज्ञात्वा मनो मारय ॥। १७१।। आगे श्रीगुरु मुनियोंको उपदेश देते हैं, कि मनको मारकर परब्रह्मका ध्यान करो - (योगिन् ) हे योगी, ( तक का दुर्मतिः) तेरी क्या खोटी बुद्धि है, जो तू (भयकारणे व्यवहारे) संसारके कारण उद्यमरूप व्यवहार करता है । अब तू (प्रपंच: रहितं) मायाजालरूप पाखंडोंसे रहित ( यत् ब्रह्म ) जो शुद्धात्मा है, (तत् ज्ञात्वा ) उसको जानकर (मनो मारय) विकल्प - जालरूपी मनको मार । भावार्थ–वीतराग स्वसंवेदनज्ञानसे शुद्धात्माको जानकर शुभाशुभ विवा जालरूप मनको मारो । मनके बिना वश किये निर्विकल्पध्यानकी सिद्धि नहीं होती । मनके अनेक विकल्प-जालोंसे जो शुद्ध आत्मा उसमें निश्चलता तभी होती है, जबकि मनको मारके निर्विकल्प दशाको प्राप्त होवे । इसलिये सकल शुभाशुभ व्यवहार छोड़के शुद्धात्मा को जानो ।।१७१ ।। मथ सव्वहिं राहिं छहिं रसहिं पंचहि रुवहिं जंतु । चित्तु विारिवि काहि तुहुँ अप्पा दंड प्रांतु ॥ १७२ ॥ सर्वः रागैः पद्भिः रमैः पञ्चभिः सर्पः गच्छन् । चित्त निवार्य व्याय एवं आत्मानं देवमनन्तम् ||१७२ || tree व्या आगे यही कहते हैं, कि farst प्रभाकर भट्ट, (त्वं) तू (सर्वैः सर्गः ) सब शुभाशुभ रागोसे (निःस) ग्रहो
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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