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परमात्मप्रकाश
परमात्माके शुद्ध भाव हैं, वे चिंताके बिना छोड़े नहीं होते । तीर्थङ्करदेव भी मुनि होते निश्चिन्त व्रत धारण करते हैं, तभी परमहंस दशा पाते हैं, ऐसा व्याख्यान जानकर देखे सुने भोगे हुए भोगोंकी वांछा आदि समस्त चिता-जालको छोड़कर परम निश्चिन्त हो, शुद्धात्मकी भावना करना योग्य है ।। १७० ।।
अथ -
जोइय दुम्मइ कवण तुहं भवकारणि ववहारि ।
वंभु पवंचहिं जो रहिउ सो जाणवि मणु मारि ।। १७१ ।।
योगिन् दुर्मतिः का तव भावकारणे व्यवहारे ।
ब्रह्म प्रपंचैर्य रहितं तत् ज्ञात्वा मनो मारय ॥। १७१।।
आगे श्रीगुरु मुनियोंको उपदेश देते हैं, कि मनको मारकर परब्रह्मका ध्यान करो - (योगिन् ) हे योगी, ( तक का दुर्मतिः) तेरी क्या खोटी बुद्धि है, जो तू (भयकारणे व्यवहारे) संसारके कारण उद्यमरूप व्यवहार करता है । अब तू (प्रपंच: रहितं) मायाजालरूप पाखंडोंसे रहित ( यत् ब्रह्म ) जो शुद्धात्मा है, (तत् ज्ञात्वा ) उसको जानकर (मनो मारय) विकल्प - जालरूपी मनको मार ।
भावार्थ–वीतराग स्वसंवेदनज्ञानसे शुद्धात्माको जानकर शुभाशुभ विवा जालरूप मनको मारो । मनके बिना वश किये निर्विकल्पध्यानकी सिद्धि नहीं होती । मनके अनेक विकल्प-जालोंसे जो शुद्ध आत्मा उसमें निश्चलता तभी होती है, जबकि मनको मारके निर्विकल्प दशाको प्राप्त होवे । इसलिये सकल शुभाशुभ व्यवहार छोड़के शुद्धात्मा को जानो ।।१७१ ।।
मथ
सव्वहिं राहिं छहिं रसहिं पंचहि रुवहिं जंतु ।
चित्तु विारिवि काहि तुहुँ अप्पा दंड प्रांतु ॥ १७२ ॥
सर्वः रागैः पद्भिः रमैः पञ्चभिः सर्पः गच्छन् ।
चित्त निवार्य व्याय एवं आत्मानं देवमनन्तम् ||१७२ || tree व्या
आगे यही कहते हैं, कि
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प्रभाकर भट्ट, (त्वं) तू (सर्वैः सर्गः ) सब शुभाशुभ रागोसे (निःस) ग्रहो