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कर देती है। उसी प्रकार भव्य हृदयों में उपयोग को कषायों से हटा कर शीतल कर निर्मलीकरण करते हुए ज्ञानोपयोग का अमृतीकरण कर देती है। देखिये, प्राइये, प्राचार्य समंतभद्र की वाणी गंगा में अमृत करणों का स्पर्श करिये-यथा
शतहदोन्मेष-चलं हि सौख्यं, तृष्णाऽऽमयाऽप्यायन-मानहेतुः । तृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजस्तापस्तदा यासयतीत्यवादीः ॥१३॥
संसार का सुख इन्द्रिय जनित है जो बिजली की झलक के समान चंचल है; और संसार सुख मृग तृष्णावत् है । इस तृष्णा रोग के बढाने में अर्थात् संतापित करने में संसार संलग्न है, सो तू-संसार को ही छोड़ अर्थात स्त्र के अतिरिक्त सब को त्याग; ऐसा आपका उपदेश है ।
देखिये यहां मात्र सूक्ष्म वस्तु तृष्णा भाव को पकड़ा है जिसके उदर में तीन लोक समाया हुवा है । मात्र तृष्णा त्याग से तीनलोक का परिग्रह स्वतः ही छूट जायेगा। क्या शैली है ? सरलता से स्तुति के माध्यम से ही भाव मन को हढ किया जारहा है इस प्रकार यह स्तुति शास्त्र रूप जिनेन्द्र मत का सरलता से दिग्दर्शन कराने वाला है । . हे भव्य जनों ! इस स्वयम्भू शास्त्र को स्तुति ही नहीं अपनी प्रात्मा की सिद्धि में महानिमित्त मान कर कंठ में धारण करो। अर्थात् मुखाग्न सार्थ ( अर्थ सहित ) याद कर लो । नित्य प्रातः उषा काल में पाठ करो आपको शीघ्र ही मोक्षमार्ग मिल जायेगा । अनंत भ्रमण से आत्मा मुक्त होकर अचल, अविनाशी महापद को प्राप्त करेगी। इसमें संदेह नहीं । आप सबके '-कर्म क्षय हों। इत्यलम् ।
मुनि विवेक सागर