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________________ ॥ श्री वीतरागाय नमः।। . मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैन-धर्मोस्तु मंगलं ॥१॥ भव्य जीवो ! अापने परमात्म प्रकाश में श्री योगीन्दु देव की वाणी जो अध्यात्म रूप रचना है-उसे पढ़ी और निश्चय ही उसका मनन किया होगा। यह प्रात्मा इस शरीर के माध्यम से ही तपश्चरण करता है। इसी के माध्यम से अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोगरत रहता है। त्याग और व्रत का माध्यम भी यह औदरिक शरीर ही है। भव्य जीवों की चेतनवृत्ति विषय से विषयान्तर होकर भी धर्म स्वरूप एवं चतुः अनुयोगों में भ्रमण करती है । इतस्ततः भटकता मन एक विषयपर उत्तम संहननधारियों के भी अंतमुहूर्त ही ठहर पाता है फिर उसे अन्य विषय पर लगाना पड़ता है। परमात्म-प्रकाश भव्य जीवों को प्राण से भी अधिक प्रिय है । इस शास्त्र के मनन, पठन, श्रवण करते रहने से वैराग्य, त्याग, स्वपर-विवेक, परिणामों की विशुद्धि, एवं संवेग का वर्द्धन होता है प्रात्म-शक्ति का जागरण होता है । अपनी प्रात्मा की स्थिति, शक्ति सम्पन्नता देख समझकर यह प्राणी स्वयं चकित होता है, सम्यक्त्व भी प्रगाढ़ता को प्राप्त होता है। परमात्म-प्रकाश की शैली भव्य जीव की शुभ परिणति को उठाकर शुद्ध परिणति में लाने का अथक प्रयास है । इस अध्यात्म गंगा में निमज्जन उन्मज्जन करने के बाद स्वभावतः मानव मन भक्ति एवं अन्यान्य विषयों की जानकारी की ओर झुकता है, उन्हें चाहता है। __अतः अब अध्यात्म-प्रेमी, स्वाध्यायी, भव्यजीव, कलिकाल-सर्वज्ञ, महावादी श्री १०८ प्राचार्य समंतभद्र स्वामी रचित स्वयंभू स्तोत्र जो निश्चय, व्यवहार, अनेकान्त, निमित्त-नैमित्तिक एवं उनके निराकरणरूप मुक्ति प्राप्ति का वर्णन, एकान्त मत का निराकरण करता है । चतुर्विशति भगवान की भक्ति गुणगान रूप स्तुति के सहारे भव्य जीवों के मन पर ऐसे उतरती है जैसे शरद पूर्णिमा के चन्द्र की चाँदनी संसार को अपने अमृत किरणों से जन-मन एवं समस्त वनस्पति औषधियों पर उतर कर उनका प्रमृतीकरण
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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