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परमात्मप्रकाश
[ २११ पयोगी मुनि इसके घर आहार लेवें, तो इसके समान अन्य क्या ? श्रावकका तो यही बड़ा धरम है, जो कि यती, अजिंका, श्रावक, श्राविका इन सबको विनयपूर्वक आहार दे। और यतीका यही धर्म है, अन्न जलादिमें राग न करे, और मान अपमान में समताभाव रक्खे । गृहस्थके घर जो निर्दोष आहारादिक जैसा मिले वैसा लेवे, चाहे चावल मिले, चाहे अन्य कुछ मिले । जो मिले उसमें हर्ष विषाद न करे । दूध, दही, घी, मिष्ठान्न, इनमें इच्छा न करे । यही जिनमार्ग में यतीको रीति है ।।१११७४।।
अथ शुद्धात्मोपलम्भाभावे सति पञ्चन्द्रियविषयासक्तजीवानां विनाशं दर्शयतिरूवि पयंगा सहि मय गय फासहि णासंति । अलिउल गंधईमच्छ रसि किम अणुराउ करंति ॥११२।। रूपे पतङ्गाः शब्दे मृगाः गजाः स्पर्शः नश्यन्ति ।।
अलिकुलानि गन्धेन मत्स्याः रसे किं अनुरागं कुर्वन्ति ॥११२।।
आगे शुद्धात्माकी प्राप्तिके अभावमें जो विषयी जीव पांच इन्द्रियोंके विषयों में आसक्त हैं, उनका अकाज (विनाश) होता है, ऐसा दिखलाते हैं-(रूपे) रूप लीन हुए (पतंगा) पतंग जीव दीपकमें जलकर मर जाते हैं, (शब्दे) शब्द विषय में लीन (मृगाः) हिरण व्याधके बाणोंसे मारे जाते हैं, (गजाः) हाथी (स्पर्श: स्पर्धा विषयके कारण गड्ढे में पड़कर बांधे जाते हैं, (गंधेन) सुगन्धकी लोलुपतासे (अलिकुलानि) भौंरे कांटोंमें या कमल में दबकर प्राण छोड़ देते और (रसे) रसके लोभी (मत्स्याः ) मच्छ (नश्यंति) घीवरके जाल में पड़कर मारे जाते हैं। एक एक विषयकपायकर आसक्त हए जीव नाशको प्राप्त होते हैं. तो पंचेन्द्रीका कहना ही क्या है ? ऐसा जानकर विवेकी जीव विषयोंमें (किं) क्या (अनुरागं) प्रीति (कुर्वति) करते हैं ? कभी नहीं करते। ..
भावार्थ-पंचेन्द्रियके विषयोंकी इच्छा आदि जो सब खोटे ध्यान वे ही हए विकल्प उनसे रहित विषय कषाय रहित जो निर्दोष परमात्मा उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप जो निविकल्प समाधि, उससे उत्पन्न वीतराग परम आबादरूप सुखअमृत, उसके रसके स्वादकर पूर्ण कलशकी तरह भरे हुए जो केवलज्ञानादि व्यक्तिरूप कार्यसमयसार, उसका उत्पन्न करनेवाला जो शुद्धोपयोगरूप कारण समयसार, उसकी भावनासे रहित संसारीजीव विषयों के अनुरागी पांच इन्द्रियोंके लोलुपी भव-भवमें नाश