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________________ २१० ] परमात्मप्रकाश यदि इच्छसि भो साधो द्वादशविधतपःफलं महाद्विपुलम् । ततः मनोवचन यो: काये भोजनगृद्धिं विवर्जयस्व ॥१११*३॥ आगे फिर भी भोजनकी लालसाको त्याग कराते हैं-(भो साधो) हे योगो, (यदि) जो तू (द्वादविधतपः फलं) बारह प्रकार तपका फल (महद्विपुलं) बड़ा भारी स्वर्ग मोक्ष (इच्छसि ) चाहता है, (ततः) तो वीतराग निजानन्द एक सुखरसका आस्वाद उसके अनुभवसे तृप्त हुआ (मनोवचनयोः) मन वचन और (काये ) कायसे (भोजनगृद्धि) भोजनकी लोलुपताको (विवर्जयस्व) त्याग करदे । यह सारांश है। उक्तं च जे सरसिं संतुट्ट-मण विरसि कसाउ वहति । ते मुणि भोयण-घार गणि रणवि परमत्थु मुणंति।।१११६३४॥ ये सरसेन संतुष्टमनसः विरसे कषायं वहन्ति । ते मुनयः भोजनगृध्राः गणय नैव परमार्थं मन्यन्ते ।।१११५४।। और भी कहा है-(ये) जो योगी ( सरसेन ) स्वादिष्ट आहारसे ( संतुष्ट. मनसः) हर्षित होते हैं, और (विरसे) नीरस आहारमें (कषायं) क्रोधादि कपाय (वहति) करते हैं, (ते मुनयः) वे मुनि (भोजने गध्राः) भोजनके विषयमें गृद्धपक्षीक समान हैं, ऐसा तू (गणय) समझ । वे (परमार्थ) परमतत्त्वको (नैव मन्यते) नहीं समझते हैं । भावार्थ-जो कोई वीतरागके मार्गसे विमुख हए योगी रस सहित स्वादिष्ट आहारसे खुश होते हैं, कभी किसीके घर छह रसयुक्त आहार पावें तो मनमें हर्प पर, आहारके देनेवालेसे प्रसन्न होते हैं, यदि किसीके घर रस रहित भोजन मिले तो काय करते हैं, उस गृहस्थको बुरा समझते हैं, वे तपोधन नहीं हैं, भोजनके लोलुपी है। गृद्धपक्षीके समान हैं । ऐसे लोलुपी यती देहमें अनुरागी होते हैं, परमात्म-पदायका नहीं जानते । गृहस्थोंके तो दानादिक ही बड़े धर्म हैं । जो सम्यक्त्व सहित दाना करे, तो परम्परासे मोक्ष पावे । क्योंकि थावकका दानादिक ही परम धर्म है। यह ऐसे हैं, कि ये गृहस्थ-लोग हमेशा विषय कपायके आधीन हैं, इससे इनके आने का व्यात उत्पन्न होते रहते हैं, इस कारण निश्चय रत्नत्रयरूप शुद्धोपयोग परमधमकाता इनके ठिकाना ही नहीं है, अर्थात् गृहत्योंके शुभोपयोगकी ही मुख्यता है । और शुद्धा
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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