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है, केवलज्ञानदर्शनरूप निजलक्षणकर सव समान हैं, कोई भी बड़ा छोटा नहीं है । जो तेरे मन में वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानरूप सूर्यका उदय हुआ है, और मोह निद्रा के अभावसे आत्म-बोधरूप प्रभात हुआ है, तो तू सवोंको समान देख | जैसे यद्यपि सोलहवानी के सोने सब समान वृत्त हैं, तो भी उन सुवर्ण-राशियों में से एक सुवर्णको ग्रहण किया, तो उसके ग्रहण करनेसे सब सुवर्ण साथ नहीं आते, क्योंकि सबके प्रदेश भिन्न हैं, उसी प्रकार यद्यपि केवलज्ञान दर्शन लक्षण सब जीव समान हैं, तो भी एक जीवका ग्रहण करने से सबका ग्रहण नहीं होता। क्योंकि प्रदेश सबके भिन्न भिन्न हैं, इससे यह निश्चय हुआ, कि यद्यपि केवलज्ञान दर्शन लक्षणसे सब जीव समान हैं, तो भी प्रदेश सबके जुदे जुदे हैं, यह तात्पर्य जानना ||८||
परमात्मप्रकाश
अथ शुद्धात्मनां जीवजातिरूपेणैकत्वं दर्शयति—
बंभहं भुवणि वसंताहं जे वि भेउ करेंति ।
ते परमप्प - पयासयर जोइय विमलु मुति ॥ ६६॥
ब्रह्मणां भुवने वसतां ये नैव भेदं कुर्वन्ति ।
ते परमात्मप्रकाशकराः योगिन् विमलं जानन्ति ||६||
आगे जातिके कथनसे सब जीवोंकी एक जाति है, परन्तु द्रव्य अनन्त हैं, ऐसा दिखलाते हैं - (भुवने) इस लोक में ( वसन्तः) रहनेवाले (ब्रह्मणः ) जीवोंका (मेदं) भेद (नैव ) नहीं ( कुर्वन्ति ) करते हैं, (ते) वे ( परमात्मप्रकाशकरा :) परमात्मा के प्रकाश करनेवाले (योगिन् ) योगी, (विमलं) अपने निर्मल आत्माको (जानंति) जानते हैं । इसमें सन्देह नहीं है ।
भावार्थ - यद्यपि जीव-राशिकी अपेक्षा जीवोंकी एकता है, तो भी प्रदेशभेदसे प्रगटरूप सब जुदे जुदे हैं । जैसे वृक्ष जातिकर वृक्षोंका एकपना है, तो भी सब वृक्ष जुदे जुदे हैं, और पहाड़-जाति सब पहाड़ोंका एकत्व है, तो भी सब जुदे जुदे हैं, तथा रत्न-जाति से रत्नोंका एकत्व है, परन्तु सव रत्न पृथक् पृथक् हैं, घट-जातिकी अपेक्षा सब घटोंका एकपता है, परन्तु सब जुदे जुदे हैं, और पुरुष जातिकर सबकी एकता है, परन्तु सब अलग अलग हैं । उसी प्रकार जीव-जाति की का एकपना है, तो भी प्रदेशोंके भेदसे सब ही जीव जुदे जुदे हैं वादी प्रश्न करता है, कि जैसे एक ही चन्द्रमा जलके भरे बहुत भासता है, उसी प्रकार एक हो जीव बहुत शरीरों में भिन्न भिन्न भास रहा है ।
अपेक्षासे सब जीवों
।
घड़ों में जुदा जुदा
इस पर कोई पर