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कल्प समाधि में ठहरकर परवस्तुसे अपनेको भिन्न जानता है, वो ही परिग्रहके ऊपर रागद्वेष नहीं करता है । यहांपर ऐसा व्याख्यान निर्ग्रन्थ मुनिको ही शोभा देता है, परिग्रहधारीको नहीं शोभा देता है, ऐसा तात्पर्य जानना ||४६ ||
परमात्मप्रकाश
अथ -
विसयहं उपरि परम- मुणि देसु वि करइ ण राउ | विसयहं जेण वियाणियउ भिराउ अप्प - सहाउ ॥ ५० ॥ विषयाणां उपरि परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम् । विषयेभ्यः येन विज्ञातः भिन्नः आत्मस्वभावः ।।५०।।
आगे विषयोंके ऊपर वीतरागता दिखलाते हैं - ( परममुनिः ) महामुनि (विषयाणां उपरि ) पांच इन्द्रियोंके स्पर्शादि विषयोंपर (रागमपि द्वेषं) राग और द्वेप ( न करोति ) नहीं करता, अर्थात् मनोज्ञ विषयोंपर राग नहीं करता और अनिष्ट विषयोंपर द्वेष नहीं करता, क्योंकि ( येन ) जिनसे ( आत्मस्वभावः) अपना स्वभाव ( विषयेभ्यः) विषयों से ( भिन्नः विज्ञातः) जुदा समझ लिया है । इसलिये वीतराग दशा धारण कर ली है ।
भावार्थ– द्रव्येन्द्री भावेन्द्री और इन दोनोंसे ग्रहण करने योग्य देखे सुने अनु भव किये जो रूपादि विषय हैं, उनको मन, वचन, काय, कृत कारित अनुमोदना से छोड़कर और निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न वीतराग परमानंदरूप अतींद्रिय सुखके रसके आस्वादनेसे तृप्त होकर विषयोंसे भिन्न अपने आत्माको जो मुनि अनुभवता है, वो ही विषयोंमें राग द्वेष नहीं करता । यहां पर तात्पर्य यह है, कि जो पंचेन्द्रियोंक विपय-सुखसे निवृत्त होकर निज शुद्ध आत्म-सुखमें तृप्त होता है, उसीको यह व्याख्यान शोभा देता है, और विषयाभिलाषीको नहीं शोभता ||५० ||
अथ
देहह उपरि परम- मुरिण देसु वि करड़ ण राउ | देहहं जेण वियाणियउ भिराउ अप्प - सहाउ ॥ ५१ ॥ देहस्य उपरि परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम् । देहादु येन विज्ञातः भिन्नः आत्मस्वभावः ॥ ५१ ॥