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परमात्मप्रकाश
[ १५३ निश्चयसे (जानन्) जानता हुआ (तमेव) केवल आत्मस्वरूपमें अचल हो रहा है, अन्य कुछ भी शुभ अशुभ कार्य नहीं करता। .. भावार्थ-परमोपेक्षा संयम अर्थात् तीन गुप्तिमें स्थिर परम समाधि उसमें आरूढ जो परमसंयम उसकी भावनारूप निर्मल यथार्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र वही जिसका लक्षण है, ऐसा मोक्षका कारण जो समयसार उसे जानता हुआ, अनुभवता हुआ, अनुभवी पुरुष न किसी प्राणीको सिखाता है, न किसीसे सीखता है, न स्तुति करता है, न निन्दा करता है । जिसके शत्रु मित्र सुख दुःख सब एक समान हैं ॥४८॥
___ अथ बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहेच्छायाः पञ्चन्द्रियविषयभोगाकांक्षादेहमूर्छावतादिसंकल्पविकल्परहितेन निजशुद्धात्मध्यानेन योऽसौ निजशुद्धात्मानं जानाति स परिग्रहविषयदेहव्रताव्रतेपु रागद्व पौ न करोतीति चतु:कलं प्रकटयति
गंथहं उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ । गंथहं जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ ॥४६॥ ग्रन्थस्य उपरि परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम् ।
ग्रन्थाद् येन विज्ञात: भिन्नः आत्मस्वभाव: ।।४६।। · आगे वाह्य अंतरंग परिग्रहको इच्छासे पांच इन्द्रियोंके विषय भोगोंका वांछक हुआ देहमें ममता नहीं करता, तथा मिथ्यात्व अव्रत आदि समस्त संकल्प-विकल्पोंसे रहित जो निज शुद्धात्मा उसे जानता है, वह परिग्रहमें तथा विषय देहसम्बन्धी व्रत अव्रतमें राग द्वेष नहीं करता, ऐसा चार-सूत्रोंसे प्रगट करते हैं- (ग्रंथस्य उपरि) अंतरङ्ग बाह्य परिग्रहके ऊपर अथवा शास्त्रके ऊपर जो (परममुनिः) परम तपस्वी (रागं देषमपि न करोति) राग और द्वष नहीं करता है (येन) जिस मुनिने (आत्मस्वभावः) आत्माकास्वभाव (ग्रंथात्) ग्रन्थसे (भिन्नः विज्ञातः) जुदा जान लिया है।
भावार्थ-मिथ्यात्व, वेद, राग, द्वेष, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ-ये चौदह अन्तरङ्ग परिग्रह और क्षेत्र, वास्तु (घर), हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य, भांडरूप दस बाह्य परिग्रहइसप्रकार चौबोस तरहके बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहोंको तोन जगतमें, तीनों कालोंमें, मन वचन, काय, कृत कारित अनुमोदनासे छोड़ और शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप वीतराग निवि