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परमात्मप्रकाश
[ १२५ जीउ वि पुग्गल काल जिय ए मेल्ले विणु दव्य । । इयर अखंड वियाणि तुहुँ अप्प-पएसहिं सव्व ॥२२॥ जीवोऽपि पुद्गलः कालः जीव एतानि मुक्त्वा द्रव्याणि । इतराणि अखण्डानि विजानीहि त्वं आत्मप्रदेशैः सर्वाणि ।।२२।।।
आगे जीव पुद्गल काल ये तीन द्रव्य अनेक हैं, और धर्म, अधर्म, आकाश ये तीन द्रव्य एक हैं, ऐसा कहते हैं- (जीव) हे जीव, (त्वं) तू (जीवः अपि) जीव और (पुद्गलः) पुद्गल (कालः) काल (एतानि द्रव्याणि) इन तीन द्रव्योंको (मुक्त्वा) छोड़कर (इतराणि) दूसरी धर्म अधर्म आकाश (सर्वाणि) ये सब तीन द्रव्य (आत्मप्रदेशः) अपने प्रदेशोंसे (अखंडानि) अखंडित हैं ।
भावार्थ-जीवद्रव्य जुदा जुदा जीवोंकी गणनासे अनन्त हैं, पुद्गलद्रव्य उससे भी अनन्तगुणे हैं, कालद्रव्याणु असंख्यात हैं, धर्मद्रव्य एक है, और वह लोकव्यापी है, अधर्मद्रव्य भी एक है, और वह लोकव्यापी है, ये दोनों द्रव्य असंख्यात प्रदेशी हैं, और आकाशद्रव्य अलोक अपेक्षा अनन्तप्रदेशी है, तथा लोक अपेक्षा असंख्यातप्रदेशी हैं । ये सब द्रव्य अपने-अपने प्रदेशोंकर सहित हैं, किसोके प्रदेश किसीसे नहीं मिलते । इन छहों द्रव्यों में जीव ही उपादेय है । यद्यपि शुद्ध निश्चयसे शक्तिकी अपेक्षा सभी जीव उपादेय हैं, तो भी व्यक्तिकी अपेक्षा पंचपरमेष्ठी ही उपादेय हैं, उनमें भी अरहन्त सिद्ध ही हैं, उन दोनोंमें भी सिद्ध ही हैं, और निश्चयनयकर मिथ्यात्वरागादि विभावपरिणामके अभावमें विशुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा जानना ॥२२॥
अथ जीवपुद्गलौ सक्रियौ धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि निःक्रियाणीति प्रतिपादयति
दव्य चयारि वि इयर जिय गमणागमण-विहीण । जीउ वि पुग्गल परिहरिवि पभणहिं णाण-पवीण ॥२३॥ द्रव्याणि चत्वारि अपि इतराणि जीव गमनागमनविहीनानि ।
जीवमपि पुद्गलं परिहृत्य प्रभणन्ति ज्ञानप्रवीणाः ॥२३॥ - आगे जीव पुद्गल ये दोनों चलन-हलनादि क्रियायुक्त हैं, और धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये चारों नि:क्रिय हैं, ऐसा निरूपण करते हैं-(जीव) हे हंस, (जीवं