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परमात्मप्रकाश
[ १२३ गमनका सहायक है, इसके बिना मुक्ति नहीं हो सकती, तो भी धर्मद्रव्य गति सहायी है, इसके बिना सिद्धलोकको जाना नहीं हो सकता, तथा अधर्मद्रव्य सिद्धलोकमें स्थिति का सहायो है । लोक-शिखरपर आकाशके प्रदेश अवकाशमें सहायी हैं। अमन्ते सिद्ध अपने स्वभावमें ही ठहरे हुए हैं, परद्रव्यका कुछ प्रयोजन नहीं है । यद्यपि मुक्तात्माओं के प्रदेश आपसमें एक जगह हैं, तो भी विशुद्ध ज्ञान दर्शन भाव भगवान् सिद्धक्षेत्र में भिन्न-भिन्न स्थित हैं, कोई सिद्ध किसी सिद्धसे प्रदेशोंकर मिला हुआ नहीं है । पुद्गलादि पांचों द्रव्य जीवको यद्यपि निमित्त कारण कहे गये हैं, तो भी उपादानकारण नहीं है, ऐसा सारांश हुआ ॥१६॥
अथदव्वई सयलई वरि ठियइणियमें जासु वसंति । तं गहु दव्वु वियाणि तुहूँ जिणवर एउ भणंति ॥२०॥ द्रव्याणि सकलानि उदरे स्थितानि नियमेन यस्य वसन्ति ।
तत् नभः द्रव्यं विजानीहि त्वं जिनवरा एतद् भणन्ति ॥२०॥ ____ आगे आकाश का स्वरूप कहते हैं-(यस्य) जिसके (उदरे) अन्दर (सकलानि द्रव्याणि) सब द्रव्ये (स्थितानि) स्थित हुई (नियमेन वसंति) निश्चयसे आधार आधेयरूप होकर रहती हैं, (तत्) उसको (त्वं) तू (नभः द्रव्यं) आकाशद्रव्य (विजानीहि) जान, (एतत्) ऐसा (जिनवराः) जिनेन्द्रदेव (भणंति) कहते हैं । लोकाकाश आधार है, अन्य सब द्रव्य आदेय है ।
भावार्थ-यद्यपि ये सब द्रव्य आकाशमें परस्पर एक क्षेत्रावगाहसे ठहरी हुई हैं, तो भी आत्मासे अत्यन्त भिन्न हैं, इसलिये त्यागने योग्य हैं, और आत्मा साक्षात् आराधने योग्य है, अनन्तसुखस्वरूप है ॥२०॥
अथ--
कालु मुणिजहि दव्वु तुहुं वट्टण-लक्खणु एउ । रयणहं रासि विभिण्ण जिम तसु अणुयहं तह भेउ ॥२१॥ कालं मन्यस्व द्रव्यं त्वं वर्तनालक्षणं एतत् ।
रत्नानां राशिः विभिन्नः यथा तस्य अणूनां तथा भेदः ॥२१॥
आगे कालद्रव्यका व्याख्यान करते हैं-(त्वं) हे भव्य, तू (एतत) इस प्रत्यक्षरूप (वर्तनालक्षणं) वर्तनालक्षणवालेको (काल) कालद्रव्य (मन्यस्व) जान