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आगे ज्ञानसे ही परब्रह्मकी प्राप्ति होती है, ऐसा कहते हैं - ( ज्ञानिन् ) हे ज्ञानी (ज्ञानी) ज्ञानवान् अपना आत्मा (ज्ञानिना) सम्यग्ज्ञान करके (ज्ञानिनं) ज्ञान लक्षणवाले आत्माको (यावत्) जबतक (न) नहीं (जानासि ) जानता, ( तावत्) तबतक (अज्ञानेन ) अज्ञानी होनेसे (ज्ञानमयं ) ज्ञानमय ( परं ब्रह्म) अपने स्वरूपको ( कि लभसे) क्या पा सकता है ? कभी नहीं पा सकता । जो कोई आत्माको पाता है, तो ज्ञानसे हो पा सकता है ।
भावार्थ- - जबतक यह जीव अपनेको आपकर अपनी प्राप्तिके लिये आपसे अपने में तिष्ठता नहीं जान ले, तबतक निर्दोष शुद्ध परमात्मा सिद्धपरमेष्ठीको क्या पा सकता है ? कभी नहीं पा सकता । जो आत्मा को जानता है, वही परमात्माको जानता है ।। १०८ ।।
अथानन्तरं सूत्रचतुष्टयेनान्तरस्थले परलोकशब्दव्युत्पत्या परलोकशब्दवाच्यं परमात्मानं कथयति
जोइज्जति बंभु परु जाणिजइ ति सोइ । बंभु मुवि जेण लहु गम्मिज्जइ परलोइ ॥ १०६॥
दृश्यते तेन ब्रह्मा परः ज्ञायते तेन स एव ।
ब्रह्म मत्वा येन लघु गम्यते परलोके ॥ १०६ ॥
इसप्रकार प्रथम महास्थल में चार दोहोंमें अन्तरस्थल में ज्ञानका व्याख्यान किया । आगे चार सूत्रोंमें अन्तरस्थल में परलोक शब्दकी व्युत्पत्तिकर परलोक शब्दसे परमात्माको ही कहते हैं - ( तेन ) उस कारणसे उसी पुरुषसे (परः ब्रह्मा ) शुद्धात्मा नियमसे ( दृश्यते ) देखा जाता है, ( तेन ) उसी पुरुषसे निश्चयसे ( स एव ) वही शुद्धात्मा (ज्ञायते ) जाना जाता है, (येन) जो पुरुष जिस कारण (ब्रह्म मत्वा ) अपना स्वरूप जानकर (परलोके लघु गम्यते) परमात्मतत्त्वमें शीघ्र ही प्राप्त होता है ।
भावार्थ - जो कोई शुद्धात्मा अपना स्वरूप शुद्ध निश्चयनयकर शक्तिरूप से केवलज्ञान केवलदर्शन स्वभाव है, वही वास्तव में ( असल में ) परमेश्वर है । परमेश्वरमें और जीवमें जाति-भेद नहीं है, जबतक कर्मोंसे बंधा हुआ है, तब तक संसारमें भ्रमण करता है । सूक्ष्मबादर एकेन्द्रियादि जीवोंके शरीरमें जुदा जुदा तिष्ठता है, और जब कर्मोंसे रहित हो जाता है, तब सिद्ध कहलाता है । संसार-अवस्था में शक्तिरूप