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[ ६१ ] को जानता है, (तेन) इसलिये (त्वं) हे प्रभाकरभट्ट तू (त्रीणिं अपि मुक्त्वा) धर्म अर्थ काम इन तीनों ही भावोंको छोड़कर (ज्ञानेन ) ज्ञानसे ( आत्मानं ) निज आत्माको (जानीहि) जान ।
भावार्थ-निज शुद्धात्मा ज्ञानके ही गोचर (जानने योग्य) है, क्योंकि मतिज्ञानादि पांच भेदों रहित जो परमात्म शब्दका अर्थ परमपद है, वही साक्षात् मोक्षका कारण है, उस स्वरूप परमात्माको वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदन ज्ञानके बिना दुर्धर तपके करनेवाले भी बहतसे प्राणी नहीं पाते । इसलिये ज्ञानसे ही अपना स्वरूप अनुभव कर । ऐसा ही कथन श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने समयसारजीमें किया है “णाणगुणेहि" इत्यादि । इसका अर्थ यह है, कि. सम्यग्ज्ञाननामा निज गुणसे रहित पूरुष इस ब्रह्मपदको बहुत कष्ट करके भी नहीं पाते, अर्थात् जो महान दुर्धर तप करो तो' भी नहीं मिलता। इसलिये जो तू दुःखसे छूटना चाहता है, सिद्धपदकी इच्छा रखता है, तो आत्मज्ञानकर निजपदको प्राप्त कर ।
यहां सारांश यह है, कि जो धर्म अर्थ कामादि सब पर द्रव्यकी इच्छाको छोड़ता है, वही निज शुद्धात्मसुखरूप अमृतमें तृप्त हुआ सिद्धान्तमें परिग्रहरहित कहा जाता है, और निर्ग्रन्थ कहा जाता है, और वही अपने आत्माको जानता है । ऐसा ही समयसारमें कहा है "अपरिग्गहो" इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है, कि निज सिद्धान्त में परिग्रह रहित और इच्छारहित ज्ञानी कहा गया है, जो धर्मको भी नहीं चाहता है, अर्थात् जिसके व्यवहारधर्मकी भो कामना नहीं है, उसके अर्थ तथा कामकी इच्छा कहांसे होवे ? वह आत्मज्ञानी सब अभिलाषाओंसे रहित है, जिसके धर्मका भी परिग्रह नहीं है, तो अन्य परिग्रह कहांसे हो ? इसलिये वह ज्ञानी परिग्रही नहीं है, केवल निजस्वरूपका जाननेवाला ही होता है ।।१०७।। . . . अथ-.
. णाणिय णाणिउ णाणिएण णाणिउं जा ण मुणेहि । ता अण्णाणिं णाणमउं किं पर बंभु लहेहि ॥१०॥ ज्ञानिन् ज्ञानी ज्ञानिना ज्ञानिनं यावत् न जानासि । तावद् अज्ञानेन ज्ञानमयं किं परं ब्रह्म लभसे ॥१०८।।