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से परमात्मतत्त्वका लाभ होता है । यद्यपि व्यवहारनयकर दीक्षा शिक्षाका देने वाला दिगम्बर गुरु होता है, तो भी निश्चयनयकर विषय कषाय आदिक समस्त विभावपरिणामोंके त्यागने के समय निजशुद्धात्मा ही गुरु है, उसी से संसारकी निवृत्ति होती है । यद्यपि प्रथम अवस्था में चित्तकी स्थिरता के लिये व्यवहारनयकर जिनप्रतिमादिक देव कहे जाते हैं, और वे परम्परासे निर्वाणके कारण हैं, तो भी निश्चयनयकर परम आराधने योग्य वीतराग निर्विकल्पपरमसमाधिके समय निज शुद्धात्मभाव ही देव हैं, अन्य नहीं ।
इस प्रकार निश्चय व्यवहारनयकर साध्य - साधक भावसे तीर्थ गुरु देवका स्वरूप जानना चाहिये । निश्चयदेव निश्चयगुरु निश्चयतीर्थ निज आत्मा ही है, वही साधने योग्य है, और व्यवहारदेव जिनेन्द्र तथा उनकी प्रतिमा, व्यवहारगुरु महामुनिराज, व्यवहारतीर्थ सिद्धक्षेत्रादिक ये सब निश्चयके साधक हैं, इसलिये प्रथम अवस्था में आराधने योग्य हैं । तथा निश्चयनयकर ये सव पदार्थ हैं, इनसे साक्षात् सिद्धि नहीं है, परम्परासे है । यहां श्री परमात्मप्रकाश अध्यात्म-ग्रन्थ में निश्चयदेव गुरु तीर्थ अपना आत्मा ही है, उसे आराधनकर अनन्त सिद्ध हुए और होवेंगे, ऐसा सारांश हुआ । व्यथ निश्चयेनात्मसंवित्तिरेव दर्शनमिति प्रतिपादयति
अप्पा दंसणु केवलु वि अणु सव्ववहारु |
एक्कु जि जोइय झाइयइ जो तइलोयहं सारु ॥६६॥
आत्मा दर्शनं केवलोऽपि अन्यः सर्वः व्यवहारः ।
एक एव योगिन् ध्यायते यः त्रैलोक्यस्य सारः ||६||
आगे निश्चयनयकर आत्मस्वरूप ही सम्यग्दर्शन है - (केवलः ग्रात्मा अपि )
(अन्यः सर्वः व्यवहारः ) दूसरा सब ध्यायते ) एक आत्माही ध्यान करने
केवल (एक) आत्मा ही ( दर्शनं ) सम्यग्दर्शन है, व्यवहार है, इसलिये ( योगिन् ) हे योगी (एक एव योग्य है, (यः त्रैलोक्यस्य सारः ) जो कि तीन लोकमें सार है ।
भावार्थ - वीतराग चिदानन्द अखण्ड स्वभाव, आत्मतत्त्वका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान अनुभवरूप जो अभेदरत्नत्रय वही जिसका लक्षण है, तथा मनोगुप्ति यादि तीन गुप्तिरूप समाधि में लीन निश्चयनयसे निज आत्मा ही निश्चयसम्यक्त्व है, अन्य सव व्यवहार है । इस कारण आत्मा ही ध्यावने योग्य है । जैसे दाख, कपूर, चन्दन वगैरह