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[ ८१ ] अर्थात् व्यवहार साधक है, निश्चय साध्य है, तो भी निश्चयनयकर एक वीतराग परमानन्दस्वभाववाला शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा रुचिरूप परिणामसे परिणत हुआ शुद्धात्मा ही निश्चयसम्यक्त्व है, यद्यपि निश्चयस्वसंवेदनशानका साधक होनेसे व्यवहारनयकर शास्त्रका ज्ञान भी ज्ञान है, तो भी निश्चयनयकर वीतरागस्वसंवेदनज्ञानरूप परिणत हुआ शुद्धात्मा ही निश्चयज्ञान है। यद्यपि निश्चयचारित्रके साधक होनेसे अट्ठाईस मूलगुण, चौरासी लाख उत्तरगुण, व्यवहारनयकर चारित्र कहे जाते हैं, तो भी शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतराग चारित्रको परिणत हुआ निज शुद्धात्मा ही निश्चयनयकर चारित्र है । तात्पर्य यह है, कि अभेदरूप परिणत हुआ परमात्मा ही ध्यान करने योग्य है ।।१४॥
अथ निश्चयेन वीतरागभावपरिणतः स्वशुद्धात्मैव निश्चयतीर्थः निश्चयगुरुनिश्चय· देव इति कथयति
अण्णु जि तित्थु म जाहि जिय अण्णु जि गुरुउ म सेवि । अण्णु जि देउ म चिति तुहुं अप्पा विमलु मुएवि ॥६५।। अन्यद् एव तीर्थ मा याहि जीव अन्यदु एव गुरु मा सेवस्व ।
अन्यद् एव देवं मा चिन्तय त्वं आत्मानं विमलं मुक्त्वा ।।६।।
आगे निश्चयनयकर वीतरागभावरूप परिणत हुआ निज शुद्धात्मा हो निश्चयतीर्थ, निश्चयगुरु, निश्चयदेव है, ऐसा कहते हैं--(जीव) हे जीव (त्वं) तू (अन्यद् एव) दूसरे (तीर्थं) तीर्थको (मा याहि) मत जावे, (अन्यद् एव) दूसरे (गुरु) गुरुको (मा सेवस्व) मत सेवे, (अन्यद् एव) अन्य (देव) देवको (मा चितय) मत ध्यावे, (आत्मानं विमलं) रागादि मल रहित आत्माको (मुक्त्वा) छोड़कर अर्थात् अपना आत्मा ही तीर्थ है, वहां रमण कर, आत्मा ही गुरु है, उसकी सेवा कर, और आत्मा ही देव है, उसीकी आराधना कर । अपने सिवाय दूसरेका सेवन मत करे, इसी कथनको विस्तारसे कहते हैं ।
- भावार्थ-यद्यपि व्यवहारनयसे मोक्षके स्थानक सम्मेदशिखर आदि व जिन'. प्रतिमा जिनमन्दिर आदि तीर्थ हैं, क्योंकि वहांसे गये महान् पुरुषोंके गुणोंकी याद
होती है, तो भी वीतराग निविकल्पसमाधिरूप छेद रहित जहाजकर संसाररूपो समुद्रके । तरनेको समर्थ जो निज आत्मतत्त्व है, वही निश्चयकर तीर्थ है, उसके उपदेश-परम्परा