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________________ ५५८ श्री पद्मावती पुरवाल जैन डायरेक्टरी श्री लालबहादुरजी जैन शास्त्री एम ए, पी. एच डी, इन्दौर श्री लालबहादुरजी शास्त्री जैन समाज के शीर्षस्थ विद्वानों में से हैं। आप एक सफ लेखक, कुशल कवि एवं प्रभावशाली वक्ता है। आपके पितामह श्री लाला शिखरचन्दजी पमारी (आगरा ) निवासी थे। श्री शिख चन्दजी के पुत्र हुये-श्री रामचरणलाल एवं हरचरणलाल। शास्त्रीजी श्री रामचरणलाल के सुयोग्य सुपुत्र हैं। श्री शास्त्रीजी का जन्म "लालरू" (कालका के पास पंजाब में हुआ। उन दिनों आपके पिता लालरू में स्टेशन मास्टर थे। अतः लालरू में जन होने से ही आपके पितामह ने आपका नाम 'लालबहादुर' रक्खा और तब से आप इसी ना से विख्यात हैं। लगभग पाँच वर्ष की आयु में आपको अपनी माता का वियोग सहना पड़ था । अभी माता की यादें मिटी भी न थीं कि तीन वर्ष बाद ही आपके पिताश्री भी चर बसे । निराश्रित बालक केवल हिन्दी पढ़ लिख सकता था। आपकी बड़ी बहिन श्री विद्यावर जी पिताजी के देहान्त से पूर्व ही विधवा हो चुकी थी। अब केवल भाई-बहिन ही एक दूस के अवलम्ब थे। आपकी बहिन ने जो वर्तमान में अजमेर में सर सेठ भागचन्दजी सा. की सौभाग्या मातेश्वरी की स्मृति स्वरूप चलने वाले कन्यापाठशाला की प्राधानाध्यापिका हैं, पं० श्रीलालजी काव्यतीर्थ की मदद से आपको महासभा के महाविद्यालय में पढ़ने भेजा। वहाँ आप छः वर्ष पढ़े। उसके बाद आप मोरेना आगये । आपकी गणना प्रतिभाशाली छात्री में की जाती थी। आप वर्षों वहाँ जैन सिद्धान्त प्रचारिणी-सभा के मन्त्री तथा जैन सिद्धान पत्रिका के सम्पादक रहे । कविता करने की प्रतिमा आपमें वहीं से प्रस्फुटित हुई। उन दिने मोरेना के तत्कालीन तहसीलदार श्री भालेराव भास्कर आपकी प्रतिभा से प्रभावित होकर आपको एक बार ग्वालियर कवि सम्मेलन में ले गये। वहाँ आपने तालियों की गड़गड़ाहट में समस्या पूर्तियाँ पढ़ी और अपनी कवित्त-प्रतिमा की अनूठी छाप छोड़ी। ___ मोरेना विद्यालय से सिद्धान्तशास्त्री और न्यायतीर्थ परीक्षा पास करने के बाद आप कार्यक्षेत्र में आ गये । सन् १९३७ में आपने शास्त्रार्थ संघ के माध्यम से समाज-सेवा का कार्य प्रारम्भ किया। वहाँ आप "जैन सन्देश" के सम्पादक भी रहे। तत्कालीन 'पद्मावती पुरवाल पाक्षिक पत्र एवं 'वीर भारत' का सम्पादन भी किया। फिरोजाबाद में वार्षिक अधिवेशन के समय आपको पद्मावती पुरवाल महासभा का उप सभापति चुना गया। सन् १९२४ में आपने मैट्रिक एवं १९४६ में इन्टर मीडियेट की परिक्षायें पास की . इसके बाद आप क्षयरोग से पीडित हो गये। अतः सन् १९४८ में इन्दौर में आपने उपचार कराया और वर्ष भर उपचार के बाद आप स्वस्थ्य हो गये।
SR No.010071
Book TitlePadmavati Purval Jain Directory
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugmandirdas Jain
PublisherAshokkumar Jain
Publication Year1967
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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