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श्री पद्मावती पुरवाल जैन डायरेक्टरी
स्व० श्री पं० गौरीलालजी जैन सिद्धान्तशास्त्री, वेरनी
एटा जिले की जलेसर तहसील में "वैरनी" नामक एक छोटा सा ग्राम है। उन्नीसवीं शताब्दी में वहाँ शिवलाल नामक एक सदाचारी गृहस्थ रहा करते थे। उनके घर से सटा हुआ ही जैन मंदिर था । देव-दर्शन, पूजन-प्रक्षालन और स्वाध्याय करना उनके प्रतिदिन के कर्तव्य थे । प्रत्येक अष्टमी, चतुर्दशी, अष्टान्हिका व दशलक्षण पर्व पर बाहर से आये हुए और स्थानीय जैनियों को शास्त्र सुनाया करते थे । इसलिए उन्हें पंडित कहा जाता था । उनके घर में कण्डे व उपले नहीं जलाये जाते थे। लकड़ियाँ धोकर और सुखाकर जलाई जाती थीं । जमीकंद या वैगन नहीं खाया करते थे। चौके में धार बांध कर पानी नहीं दिया जाता था । जो स्त्री चौके में भोजन बनाने जाती थी, उसी दिन की धुली हुई बोती पहन कर चौके में जाती थी और जब तक पं० गौरीलाल भोजन नहीं कर जाते थे, चौके के बाहर नहीं आ पाती थी ! कदाचित किसी कारणवश उसे बाहर आना भी होता था तो दुवारा धोती धोकर गीली ही पहन कर चौके में जाना होता था ।
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आजकल का युवक इन बातों को डिम्भ और पाखण्ड वतलायेगा, किन्तु उस युग में ब्राह्मण-वय समान में बड़ी ही पवित्रता वरती जाती थी। घर में इतना शुद्ध भोजन बनता था कि कोई प्रती-मुनि तक अकस्मात् आजाने पर जाति के हर घर में भोजन कर सकता था । उसके लिये चौकी की विशेष व्यवस्था नहीं करनी पड़ती थी ।
ऐसे धर्मात्मा सद्गृहस्थ पं० शिवलाल के दो पुत्र हुए। बड़े पुत्र का नाम रामलाल जी और छोटे पुत्र का नाम उदयराज जी । इन दोनों भाइयों के समय में भी इस घर में पूरी धार्मिक मर्यादा अक्षुण्ण बनी रही। दोनों ही भाई धार्मिक क्रियाओं को करते हुए कपड़ का व्यवसाय करते रहे। श्री रामलाल जी के दो पुत्र और तीन पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। बड़े का मनीराम और छोटे का गौरीलाल नाम था। श्री उदयराज जी के पाँच प्यारेलाल, सोनपाल, वंशीधर, खूवचन्द और नेमचन्द नामक के पुत्र हुए। पहले प्यारेलाल और उनके शोक में कुछ ही समय बाद उदयराज जी स्वर्गस्थ हुए। श्री गौरीलाल जी का जन्म सात ही महीने में हुआ था । रुई के गालों पर पाले जाते थे । इन्हें हाथ से कोई नहीं उठा सकता था, इतने कमजोर थे । परन्तु आयुर्बल बहुत बड़ा था ।
जब कुछ वयस्क हुए तो यह बेरनी के शासकीय स्कूल में शिक्षा के लिए भेजे गये । उसके वाद अलीगढ़ में पढ़े। परन्तु यहाँ न्याय, ज्याकरण और साहित्य आदि विषयों की उच्च शिक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं था। गौरीलाल जी समस्त वाङ्गमय हृदयंगम करना चाहते थे । अतः इन्हें वनारस अध्ययनार्थं भेजा गया । यहाँ इन्होंने सभी विषयों खासकर व्याकरण का गंभीर अध्ययन किया। उसके बाद आपने दिल्ली में रहना प्रारम्भ किया और यहीं कपड़े का व्यवसाय किया। कुछ दिन तक जवाहरात का भी कार्य किया। स्टेशनरी की भी दूकान की, वह अपने भतीजे को दे दी। उसके बाद जलेसर में आकर एक सूत की दूकान खोली और खाड़ी का भी काम किया। आपको दो तीन बच्चे हुए, पर जिचे नहीं ।