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श्री पद्मावती पुरवाल जैन डायरेक्टरी जाकर थाप मारी। इससे राजकुमार घायल होकर वेसुध जमीन पर गिर पड़ा। सभा में आतंक और भय व्याप्त हो गया। सिंह सभा से चला गया। इस आकस्मिक और घातक आक्रमण से राजकुमार के प्राण पखेरू शरीर रूपी पिंजड़े को छोड़ कर उड़ गए। राजा को अपार दुःख हुआ। किन्तु वचनबद्ध होने के कारण ब्रह्मगुलाल से कुछ कह नहीं सके थे। वनराजा ने अपने स्वाभाविक कर्तव्य का पालन किया तो नरराजा ने अपने वचन का पालन किया। राजा की सहिष्णुता कुछ अधिक वजनदार और प्रशंसनीय है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि श्रवणकुमार के माता पिता ने, कोशलाधीश दशरथ ने और कुरु-पांडव गुरु द्रोणाचार्य प्रमृति व्यक्तियों ने पुत्र शोक में अपने-अपने प्राण विसर्जित किये थे। किन्तु राजा ने बड़े धैर्य के साथ इस आघात को सहा।
___ इस अहिंसा कार्य से ब्रह्मगुलाल को बहुत दुःख हुआ, वह बड़े ही व्याकुल थे। पश्चाचाप की प्रचण्डाग्नि से उसकी अन्तरात्मा झुलस रही थी। भूख, प्यास और नोंद समाप्त सी हो गई थी। मंत्री ने जब देखा कि हम पर कोई कलंक नहीं आया है, तो उसने पुनः राजा के कान फूकने आरम्भ किए। मंत्री ने राजा से कहा कि जिसके कारण आपको इतना कष्ट हुआ, उस ब्रह्मगुलाल से कहिए कि वह दिगम्बर जैन मुनि का स्वांग भर कर समा में आयें । यदि वह ऐसा नहीं करते तो उनकी अपकीर्ति होती है और राज्य छोड़ कर अन्यत्र चले जॉयगे
और दिगम्बर मुनि का भेष धारण करके फिर उसे छोड़ दिया या गृहस्थ हो गये तो समाज में प्रतिष्ठा नहीं रहेगी। राजा की ओर से उन्हें दिगम्बर मुनि का भेष बना कर समा में आने का आदेश मिला। ब्रह्मगुलाल ने अपने परम मित्र मथुरा मल्ल और पत्नी आदि से परामर्श किया। इसके बाद वह जैन मुनि का दिगम्बर भेष धारण कर राजसभा में जा पहुंचे। अचानक ब्रह्मागुलाल को मुनि भेष में देख कर समस्त सभासद आश्चर्य चकित रह गये। मंत्री ने कहा- आप अपने सदुपदेश से राजा के शोक का शमन कीजिये। उन्होंने उस समय राजा को जो उपदेश किया, उससे उनके शोक का शमन हो गया और राजा ने ब्रह्मगुलाल की बड़ी प्रशंसा की।
श्री ब्रह्मगुलाल जी राजसमा से निकल कर घर नहीं गये अपितु सीधे वन की ओर चले गये। इससे नगर के नर-नारियों में हाहाकार मच गया। उनकी पत्नी पर वो वज्राघात ही हो गया। नगर की त्रियाँ उनकी पत्नी को लेकर उनके पास वन में पहुंची और पुनः घर आने के लिए विविध प्रार्थनाएँ की। किन्तु जो असल वस्तु का स्वाद पा गया था, उसे कृत्रिम कैसे तुष्टि प्रदान कर सकती थी। अब उन्हें आत्मानन्द की अनुभूति हो चुकी थी और चारों ओर से घेरे हुए पूर्वजन्मार्जित पाप भस्मसात् हो गये थे। अव तत्त्वज्ञान का समुज्ज्वल प्रकाश उनके सामने था। मथुरा मल्ल ने उन्हें समझा कर पुनः घर लाने की बड़ी चेष्टा की, किन्तु उल्टे मल्ल जी पर ही उनका रंग चढ़ गया और वह भी अपने परम मित्र ब्रह्मगुलाल जी के अनुयायी हो गए। जैन साहित्य का सृजन
श्री ब्रह्मगुलाल जी अच्छे कवि थे और कान्य शास्त्र का अनुशीलन भी किया था। अब काव्य सृजन का समय आ गया था और वन में कठोरतम साधनारत रहने पर भी परोपकारार्थ साहित्य का सृजन आरम्भ किया। . . . ..