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________________ आचार्य कुन्दकुन्द / 49 जैन सम्राट खारवेल ने उत्तर एव दक्षिण भारत पर पराक्रमपूर्ण आक्रमण भी किए थे तथा जैनधर्म का प्रचार भी किया था। इसके अतिरिक्त उसने अखिल भारतीय स्तर पर एक विराट जैनसम्मेलन का कुमारीपर्वत ( उदयगिरि - खण्ड गिरि) पर आयोजन किया था और उसमे उसने चतुविध सघ को ससम्मान आमन्त्रित कर मौर्यकाल मे उच्छिन्न चौसट्ठी अग-सप्तक के चतुर्थ भाग को पुन प्रस्तुत करवाया था । मन्त्रमुग्ध कर देने वाले उस सम्मेलन के वातावरण से उसे जीव एव देह के भेद - विज्ञान का अनुभव हो गया था । खारवेल जैसे पराक्रमी सम्राट के सहसा ही हृदय परिवर्तन सम्बन्धी इस तथ्य ने समस्त जैनधर्मानुयायियो पर आगामी अनेक वर्षों तक अमिट छाप छोडी होगी । कुन्दकुन्द भी खारवेल के उक्त राजनैतिक एव जैनधर्म प्रचार सम्वन्धी कार्यों से अवश्य ही सुपरिचित रहे होंगे और सम्भवत प्रेरित होकर छिन्नभिन्न दृष्टिवादाग के उद्धार का प्रयत्न भी उन्होने किया होगा । इस तथ्य से इस बात की भी पुष्टि होती है कि कुन्दकुन्द ने षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डो पर 'परिकर्म' नाम की टीका लिखी होगी, जो या तो राजनीतिक उथल-पुथल मे लुप्त हो गई अथवा देश विदेश के किसी प्राचीन शास्त्रभण्डार मे छिपी पडी है और अपने उद्धार की प्रतीक्षा कर रही है । 3 कुन्दकुन्द काल मे शुग- राज्यकाल की समाप्ति हुई और पश्चिमोत्तर भारत मे शको के आक्रमण प्रारम्भ हुए। वे क्रमश दक्षिण भारत की ओर बढते गए । इन आक्रमणो के कारण भारत का सामाजिक एव राजनीतिक जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था । श्रमणत्व की सुरक्षा एवं उसके उद्धार के लिए चिन्तित आचार्य कुन्दकुन्द को इसकी जानकारी अवश्य रही होगी, ऐसा अष्टपाहुड- साहित्य एव रयणसार के अध्ययन से प्रतीत होता है । आध्यात्मिक सन्त होने के कारण भले ही उनका राजनयिको से सम्पर्क न रहा हो, किन्तु राजतन्त्र की परम्पराओ एव व्यवस्थाओं सम्बन्धी जो सावंजनिक प्रभावक शब्दावलियां थी, वे प्रबुद्ध सामाजिको एव साहित्यकारो को ज्ञात रही होगी । यही कारण है कि कुन्दकुन्द ने अध्यात्म के गहरे
SR No.010070
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Vidyavati Jain
PublisherPrachya Bharti Prakashan
Publication Year1989
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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