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________________ आचार्य कुन्दकुन्द /35 पक्के फलम्हि पडिए जह ण फलं बज्झए पुणो विटे। जीवस्य कम्मभावे पडिए ण पुणोदयमुवेई ॥ (समय०-168) अर्थात् जिस प्रकार कोई फल पक कर जब गिर जाता है, तब वह पुन बोंडी के साथ नही बंध सकता। उसी प्रकार जब जीव का कर्मभाव पककर गिर जाता है, तब फिर वह पुन उदय को प्राप्त नहीं होता। रहस्यवाद की झांकी ज मया दिरसदे स्व ताण जाणादि सम्वहा । जाणग दिस्सदे णत तम्हा जपेमि केण ह ॥ (मोक्ख-29) अर्थात् जो रूप मेरे द्वारा देखा गया है, वह सर्वथा जानता नही और जो जानता है वह दिखाई नहीं देना। तब मैं किसके साथ दात करूं? इस प्रकार निराकार अदृश्य जीवात्मा का यहाँ सुन्दर वर्णन क्यिा गया है। कूट-पद-प्रय ग कूट-पदो के प्रयोग कुन्दकुन्द-साहित्य में प्रचुरता से नहीं मिलते, क्वचित् कदाचित् ही मिलते है । वस्तुत इस प्रकार की रचनाएं, जिनके कि शब्दो के साथ साधारण अर्थ भी रहते हैं, फिर भी सरलता से उनका भाव समझने में कठिनाई होती है और जिनका अर्थ शब्दो की भूलभुलयो मे प्रच्छन्न रहता है, वे कूट-पद कहलाते है। कुन्दकुन्द-साहित्य मे भी कहीकही इस प्रकार के कुछ कूट-पद उपलब्ध है । उदाहरणार्थ तिहि तिणि धरिवि णिच्च तियरहिओ तह तिरुण परियरियो। दो दोसविप्पमुक्को परमप्पाशायए जोइ ॥ (मोक्ष० 44)॥ अर्थात् तीन (अर्थात मन, वचन एव काय) के द्वारा तीन (अर्थात वर्षा-कालयोग, शीतकालयोग और उष्णकालयोग) को धारण कर निरन्तर तीन (अर्थात् मिथ्यात्व एव निदानस्प शल्यो) से रहित तीन (अर्थात् सम्यदर्शन आदि तीन रत्नो) से युक्त और दो दोषो (अर्थात् राग एव द्वेप) से रहित योगी, परमात्मा अर्थात् सिद्ध के समान उत्कृष्ट आत्मस्वरूप का ध्यान करता है। (इस पद्य का अर्थ विपय का विशेष जानकर
SR No.010070
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Vidyavati Jain
PublisherPrachya Bharti Prakashan
Publication Year1989
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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