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________________ आचार्य कुंदकुंददेव आचार्य कुन्दकुन्द. देव ने पंचमकाल में तीर्थकर भगवान का साक्षात् दर्शन किया। पूर्व ज्ञात यथार्थ आगम ज्ञान दिव्यध्वनि सुनकर स्पष्ट तथा विशदता को प्राप्त हुआ एवं आत्मानुभूति प्रगाढ़ता को प्राप्त हुई । एवं जीवोद्धारक अनादिनिधन परम सत्य तत्व लोगों को समझाया : लिपिबद्ध भी किया। यह शास्त्र लेखन का कार्य वस्तुतत्त्व का निर्णय करके आत्महित के मार्ग में संलग्न होने के अभिलाषी भव्य जीवों के लिए एकमेव महान उपकारी उपाय है । इसलिए भगवान महावीर और गौतम गणधर के बाद आचार्य कुन्दकुन्ददेव को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है यह उचित ही है। , इन आचार्य को “कलिकाल सर्वज्ञ" जैसे महान आदर सूचक शब्दों से शास्त्रों में स्मरण किया गया है । यह तथ्य इस विश्वास को और भी दृढ़ता प्रदान करता है कि भरतक्षेत्र में आचार्य के विचरण का जो काल विक्रम की पहली शताब्दी निर्धारित किया गया है, इससे भी उनका काल प्राचीन होना चाहिए | स्वयं आचार्य ने अपने बोधपाहुड़ ग्रंथ में अपने को सीसेण या भद्दबाहुस्स (भद्रबाहु का शिष्य) सम्बोधित किया है । इससे आचार्य का अस्तित्व काल ई. स. पूर्व होना चाहिए ऐसा स्पष्ट सिद्ध होता है। १. मुझे लगता है कि आचार्य कुन्दकुन्द का काल विक्रम की प्रथम शताब्दी से बहुत पूर्व का था, क्योंकि आचार्य द्वारा रचित किसी भी ग्रंथ में उन्होंने अपना परिचय नहीं दिया है पर बोधपाहुड़ की ६१-६२वीं गाथाओं को पढ़ने के बाद बोधपाहुड़ श्रुतकेवली भद्रबाहु के शिष्य की कृति है ऐसा ज्ञात होता है। और बोधपाहुड़ यह ग्रंथ आचार्य कुन्दकुन्ददेव की कृति है, यह विषय निर्विवाद है। इससे स्पष्ट होता है कि वे श्रुतकेवली भद्रबाहु के शिष्य थे। इस स्थिति में आचार्य कुन्दकुन्द का समय विक्रम शताब्दी से बहुत पहले का है। श्री रामप्रसाद जैन (अष्टपाहुड़ भूमिका, पृष्ठ ७८
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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