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________________ आचार्य कुंदकुंददेव जैन दर्शन एक द्रव्य में अन्य द्रव्य का अस्तित्व स्वीकारता नहीं है अर्थात परस्पर दो द्रव्यों में अत्यंत अभाव स्वीकारता है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि अनंतानंत जड़-चेतन द्रव्यों की स्वतंत्रता मानता है। पुदगल का पुदगल के साथ और जीव का पुदगल के साथ परस्पर बंध होता है तो भी अनंतानंत द्रव्यों की स्वतंत्रता में बाधा नही आती। एक द्रव्य का अन्य द्रव्य में प्रवेश नही होता, यही द्रव्य की वास्तविकता है और यही जिनवाणी की मौलिकता है। इस मर्म को जानकर निश्चयनय के विषय को मुख्य करके मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होना चाहिए. यह जिनागम का उपदेश है। पराश्रित जीवनक्रम अनादि काल से चलता आया है। पराश्रय से अर्थात निश्चय निरपेक्ष व्यवहारनय कथित विषय के अवलंबन से जीवन में वास्तविक धर्म-मोक्षमार्ग-बीतरागता प्रगट होना शक्य नहीं है। इस प्रकार जिनधर्म का मर्म आचार्य कुंदुकुंद देव ने अपने अनेक अर्थों में स्पष्ट किया है। आचार्य की लोककल्याणकारी करुणाबुद्धि के फलस्वरूप प्राप्त पंचास्तिकाय, अष्ट पाहुड़, प्रवचनसार, समयसार और नियमसार अर्थों का क्रम से अध्ययन करने पर आचार्यदेव का वास्तविक चरित्र हमारे मनः चक्षु के सामने स्पष्ट होता है। आचार्य की आत्मशुद्धि क्रमशः बढ़ती गयी । वास्तविक देखा जाय तो आचार्य रचित प्रत्येक गाथा का प्रत्येक शब्द उनका महान चरित्र हमें समझाता है। ऐसी स्थिति में उनके स्वतंत्र जीवन चरित्र की आवश्यकता ही क्या है ? तथापि
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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