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________________ आचार्य कुंदकुंददेव ढल रहा है । तो क्या यह नक्षत्र मण्डल है ? नहीं | अहो आश्चर्य ! एक से दो हो गये। ऐसा लग रहा है कि दो प्रकाशपुंज इधर ही आ रहे हैं । जमीन पर उतर रहे हैं। नहीं, नहीं । जमीन से स्पर्श न करते हुए अधर हैं । अहो ! मानवाकृतियाँ ! नहीं, नहीं । महामुनि ! नहीं, ये तो चारणश्रृद्धिधारी मुनि युगल हैं | धन्य ! धन्य ! वे मुनि आचार्यश्री की गुफा की ओर जा रहे हैं। श्रमणकुलतिलक आचार्य कुन्दकुन्द के दर्शनार्थ आये होंगे। __ अहो ! चारणश्रृद्धिधारी मुनिराज भी इस मानव-महर्षि की वंदना कर रहे हैं । अहो ! इनके तप की महिमा कितनी अपार है। "भगवन ! विश्ववन्ध! वन्दे, वन्दे, वन्दे ।" कुछ काल मौन धारण कर आचार्य कुन्दकुन्द देव ने निज मति को अन्तर्लीन किया । “विश्ववन्द्य, भगवन आदि मेरे लिए प्रयुक्त विशेषण-उपाधियाँ मेरे योग्य नहीं हैं। ये उपाधियों सम्बोधनकर्ता की महानता को बताती हैं।" इस प्रकार विचार करके आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने चारण-मुनियों की प्रतिवन्दना की। चारण-मुनियों ने तत्काल उनको रोककर कहा"भगवन यह क्या ?" "कुछ नहीं, यही योग्य है।" | "इसकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि विदेक्षेत्रस्य की श्री सीमन्धर तीर्थकर देव के समोसरण में गणघरदेव की उपस्थिति में आपके अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग की विशिष्ट चर्चा सुनकर ही हम अपके दर्शनार्थ आये हैं।"
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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