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________________ आचार्य कुंदकुंददेव करेगा और वर्तमान में भी नहीं कर रहा है। वह कार्य आत्मा की सीमा से बाह्य है। अज्ञानी अपनी इस मर्यादा को लांघने के अन्यायरूप विचार से ही दुःखी होता है । दिन-रात, पक्ष-मास एक के बाद एक आकर भूतकाल के गर्म में समा रहे थे। पर भावसमाधि में निमग्न मुनिराज कुंदकुंद को समाधि भंग हो जाने पर पुनः भावसमाधि के लिए ही पुरुषार्थ करनेवाले समाधिसम्राट को इन सबका ज्ञान कैसे होता ? अपनी देह की ही चिन्ता जिन्हें नहीं, उन महान पुरुष को इस लौकिक प्रपंच का ज्ञान कैसे होता ? जब तीव्र पुरुषार्थ मंद पड़ने पर वे शुद्धोपयोग से शुभोपयोग में आते थे तो सोचते थे & "अहो आश्चर्य ! इस जड़ शरीर का संयोग अभी भी है ?" कुंदकुदाचार्य ध्यानावस्था - आत्मगुफा से बाहर आकर और पाषाण गुफा से भी बाहर आकर जब कभी पर्वत तथा सुदूर प्रदेश पर सहज निर्विकार दृष्टिपात करते थे तब स्मृति पटल पर मुनिसंघ का चित्र अंकित / प्रतिबिंबित होता था । उस समय शरीर के लिए आवश्यक और ध्यान में निमित्तभूत आहार के लिए निकलने का विकल्प उठता था । तत्क्षण पर्वत पर से नीचे उतरकर चर्या के लिए पोन्नूर गाँव में गमन करते थे । आहार करते ही कड़ी धूप में ही फिर पर्वत पर पहुँच जाते थे । • " आहार के लिए कल फिर उतरना ही पड़ेगा अतः पर्वत पर न जाकर बीच में ही कहीं ध्यान के लिए बैठे" ऐसे विचार मन में कभी भी नहीं आते थे । “आज आहार लिया है, अब फिर आहार लिए बिना ही निराहारी केवली बनना है " ऐसे उग्र पुरुषार्थी चिंतन
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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