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आचार्य कुंदकुंददेव नाम तो किसी न किसी रूप में उपलब्ध होते हैं; परन्तु परम वीतरागी, जिनमुद्राधारी और लौकिक जीवन से अत्यन्त निस्पृह आचार्य कुन्दकुन्ददेव के गुरू का निश्चित नाम नहीं मिलता। ___ आचार्य कुंदकुंद द्वारा लिखित सीसेण भद्दवाहुस्स' इस उद्धरण से उनके गुरू कौन से भद्रबाहु थे ? यह स्पष्ट नहीं होता। इन महामुनिराज को तो अपने आत्मकल्याण के अतिरिक्त किसी की भी आवश्यकता नहीं थी-ऐसा ही प्रतीत होता है।
मुनीश्वर शुद्धोपयोगरूप परमसुखदायक अवस्था को छोड़कर बाहर आना ही नहीं चाहते हैं । कारण कि महापुरुष पुण्यमय शुभोपयोग में आना भी मुनिधर्म का अपवाद-मार्ग मानते हैं ! ऐसी स्थिति में आत्मिक जीवन व्यतीत करनेवाले महापुरुषों को अपनी जन्मभूमि, माता-पिता और गुरुपरम्परा इत्यादि का स्मरण भी कैसे हो सकता है ? केवल बाह्य घटनाओं को महत्व देनेवाले सामान्य, तुच्छ, लौकिक पुरुषों को ही जन्मभूमि माता-पितादि को नाम लिखने की आवश्यकता प्रतीत होती है। ____ सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चरित्र की अधिकता से प्रधान पद प्राप्त करके वे संघ में नायक थे । वे मुख्यरूप से तो निर्विकल्प स्वरूपाचरण में ही मग्न रहते थे । कदाचित् किसी धर्म-लोभी जीव की याचना सुनकर रागांश के उदय से करूणाबुद्धि होने पर धर्मोपदेश देते थे | जो स्वयं दीक्षा-ग्राहक बनकर आते थे उन्हें दीक्षा देते थे। जो अपने दोषों को प्रगट करते थे, उन्हें प्रायश्चित्त विधि से शुद्ध करते थे। इस प्रकार संघ का संचालन करते थे। १. बोध पाहुड, गाथा ६१.