SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य कुंदकुंददेव “गुणी च गुणरागी च सरलो विरलो जनः” । अर्थात् स्वयं गुणवान होते हुए गुणीजनों के संबंध में प्रमोद व्यक्त करनेवाले ऐसे सरल लोग बहुत विरल होते हैं। देखो ! वीतरागी महामुनिश्वरों को भी पद्मप्रभविषयक राग उत्पन्न होता था, ऐसा था वह बालकरत्ना ५२ उन्होंने सोचा- इस प्रकार के अनुपम बुद्धिधारक बालक को अपने संघ में बुलाकर अपने सानिध्य में योग्य समय पर धर्म-शिक्षण देना चाहिए । फिर मुनिसंघ के नायक- आचार्य पद पर विराजमान करना चाहिए । इससे समाज को विशेष धर्मलाभ होगा । परन्तु पेनगोंडे संघ के आचार्य जिनचंद्र महाराज का और गुणकीर्ति का परिचय पहले से ही पर्याप्त है, अतः यह बालक रत्न अपने संघ को मिलना कठिन ही लगता है । तथापि इस वर्षायोग की समाप्ति के बाद कोण्डकुन्दपुरनगर की दिशा में विहार करना ठीक रहेगा । क्रमनियमित पर्याय में जो होनेवाला है वही होगा। अपनी इच्छा के अनुसार वस्तु में परिवर्तन करने का सामर्थ्य किसी आत्मा अथवा अन्य पदार्थ में है ही नहीं । अज्ञानी तो मात्र विकल्प ( राग-द्वेष ) करता है । प्रत्येक पदार्थ की परिणति (बदल, अवस्था, परिवर्तन) अपने-अपने स्वभाव के अनुसार स्वयमेव होती रहती है। यह तो अनादिनिधन वस्तुस्वभाव है। इस विश्व में कौन किसका नाश कर सकता है ? कौन किसको सुरक्षित रख सकता है ? कौन धर्म की अभिवृद्धि करेगा ? सर्व पदार्थ सर्वत्र सर्वदा स्वतंत्र हैं । परन्तु वस्तु स्वातंत्र्य का बोध नहीं होने से अज्ञानी, आत्मा को अकर्ता-ज्ञाता स्वभावी नहीं जानता मानता। आत्मा को ज्ञाता-दृष्टा स्वभावी मानना
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy