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________________ आचार्य कुंदकुंददेव के समान उसने भी लोरी गाई, तथापि रोना बन्द नहीं हुआ, उल्टा रोना तेज हो गया । "निद्रित स्वामिनी शान्तला को जगाना उचित नहीं" ऐसा सोचकर धाय ने अनेक उपायों से पद्मप्रभ को सुलाने का प्रयास किया । लेकिन सभी प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध हुए । माता के मुख से मधुर अध्यात्म सुनने की शिशु की इच्छा को धाय कैसे जान सकती थी ? ४७ सामान्यतः बालक हो, युवा हो, प्रौढ़ हो अथवा बुजुर्ग हो, शरीर को ही आत्मा माननेवाले जीव के मानस में एक मात्र उदर-पूर्ति करना ही मुख्य कर्तव्य हो जाता है । जीव भोजन से जीवित रहता है, भोजन के बिना मरण अटल है ऐसी ही विपरीत मान्यता प्रायः सुनने को मिलती है। भोजन से ही जीवन तय माना जा सकता है जब भोजन के अभाव में मरण हो। प्रतिदिन भरपेट खा-पीकर भी कितने ही प्राणी मरते जा रहे हैं । भोजन करने से यदि कोई जीता है तो किसी कीड़े को भी मरना नहीं चाहिए, क्योंकि प्रत्येक के अपने योग्य भोजन की सुविधा तो रहती ही है । इसलिए यह विदित होता है कि भोजन के अभाव में जीव मरता है यह यात नितान्त असत्य है । इसके बाद स्वामिनी शान्तला को बुलाना अनिवार्य है ऐसा समझकर धाय ने उसे बुलाया । "यह रोना बंद ही नहीं कर रहा है, उसे भूख लगी होगी, दूध पिलाइये ।" इसप्रकार धाय ने शान्तला से कहा। गहरी निद्रा से जागृत शान्तला ने शिशु के पास जाकर देखा। प्रिय पद्मप्रभ आँखें खोलकर रो रहा है। यह भूख के कारण नहीं
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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