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________________ आचार्य कुंदकुंददेव है, अज्ञानी यह नहीं जानता। इसलिए अम से अनुकूल-इष्ट परवस्तु के संयोग के लिए परिश्रम करने से निराशा हाथ लगती है और अंत में मरणकर नाश को प्राप्त होता है। गर्भस्थ शिशु का पुद्गल पिण्ड क्रमशः वृद्धि को प्राप्त हो रहा था । मानों लोगों को अपने शुभागमन का शुम संकेत दे रहा हो। शान्तला के अंग-अंग में शोभा आ रही थी । सौन्दर्य दिन प्रतिदिन अपनी अन्तिम सीमा पर्यन्त पहुंचने का प्रयास कर रहा था । चौथे महीने में कटिभाग भर जाने से सौन्दर्य में अपूर्वता आ गई थी। पांचवें माह में उदर भाग भर जाने से सुन्दरता ने कुछ अलग ही रूप धारण किया था । सर्व शरीर में नवीनता लक्षित हो रही थी। जल-भरित बादलों के समान उसकी चाल गंभीर व मंद बन गयी थी। वह गजगामिनी बन गयी थी। जैसे हरा फल पक जाने के बाद पीतवर्ण का हो जाता है उसी प्रकार शान्तला के शरीर का वर्ण पीत हो गया था । प्रारंभ से गौर वर्ण तो था ही । उसकी नुखाकृति का सौन्दर्य देखकर जन्म लेने वाले भव्य पुरूष के उज्ज्वल भविष्य को कोई भी बता सकता था। देखते ही नज़र लग जाने योग्य उसका रूप हो गया था। इस तरह क्रमशः सातवाँ, आठवाँ महीना पूर्ण करके नवमें महीने में प्रवेश किया। __नगरवासी सौभाग्यवती स्त्रियों ने शान्तलादेवी के लौकिक में करने योग्य सभी संस्कार महान उत्सवपूर्वक किये । शिशु का विकास निर्विघ्न रीति से हो एतदर्थ भी सभी संस्कार किये गये | पुण्यवानों को बाह्य सभी अनुकूलता मिलती ही रहती हैं। काल अपने क्रम से व्यतीत हो रहा था।
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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