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________________ आचार्य कुंदकुंददेव शुद्धात्मस्वरूप को जाने बिना अन्य अनुपयोगी-अप्रयोजनभूत वस्तु को जान भी ले तो उससे क्या लाभ ? निज शुद्धात्मा को न जाननेवाला ज्ञान व बाह्य क्रियाकाण्ड सच्चे सुख के लिए सर्वथा निरुपयोगी तो है ही, साथ ही अनर्थकारी भी है । २० इस वर्तमान अवसर्पिणी के चतुर्थकाल में भगवान ऋषभनाथ से लेकर भगवान महावीर पर्यंत चौबीस तीर्थंकर, अनेक केवली, गणधर, ऋषि, मुनि आदि हुए हैं। भगवान महावीर के बाद तीन केवली और पाँच श्रुतकेवली हुए । उनमें अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय उत्तर भारत में बारह वर्ष का भीषण अकाल पड़ा, तब श्री भद्रबाहु स्वामी अपने शिष्यों के साथ दक्षिण भारत पहुँचे । उस समय दक्षिण भारत में जैन परम्परा का उज्वल प्रकाश हुआ और भगवान महावीर की दिव्य वाणी को लिपिबद्ध करने का श्रेय दक्षिण भारत के आचार्य परमेष्ठियों को प्राप्त हुआ; जिससे इस पंचमकाल के अंत पर्यंत धर्मप्रवर्तकों का दक्षिण भारत में होना और धर्म का दक्षिण भारत में जीवित रहना इसे नैसर्गिक वरदान ही मानना पड़ेगा | भगवान महावीर के लगभग पाँच सौ वर्ष बाद अर्थात् विक्रम संवत् के प्रारंभ में उत्तर-दक्षिण भारत के समन्वयरूप अध्यात्मलोकमुकुटमणि आचार्य - कुलतिलकस्वरूप महापुरुष आचार्य कुन्दकुन्द का उदय हुआ । उन्होंने मानों प्रत्यक्ष केवली सदृश कार्य करके चार मंगलों में सहज रीति से स्थान पा लिया। इतना ही नहीं भगवान महावीर और गौतम गणधर के बाद प्रथम स्थान पर विराजमान होकर शोभायमान हुए । ऐसे अलौकिक महा-पुरूष के दिव्य चरित्र
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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