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________________ १२६ आचार्य कुंदकुंददेव भावपाहुड़ :-इसमें १६५ गाथाओं के द्वारा भावों का महत्व बताया है । भाव ही प्रथम लिंग है और भावलिंग रहित मात्र द्रव्यलिंग से परमार्थ की सिद्धि नहीं होती । गुण-दोषों का कारण भी भाव ही है। भाव-विशुद्धी के लिए ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है। जो अभ्यंतर परिग्रह से सहित है, उसका बाइंय त्याग निष्फल है। भावरहित साधु करोड़ों जन्मपर्यंत वस्त्र त्यागकर तपश्चरण करे तथापि उसे सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती । भावकलंक से यह जीव एक अन्तर्मुहुर्त में ६६३३६ बार जन्म-मरण करता रहता है और दुःख भोगता रहता है । अत: प्रत्येक जीव को अपने परिणामों को /भावों को सुधारना आवश्यक है। जो शरीरादि परिग्रह से रहित हैं, मान कषाय से विमुक्त हैं, जो अपने आत्मा में लीन हैं, वे साधु भावलिंगी मुनि होते हैं। उसीप्रकार धर्म का वर्णन भी किया है। संसार के सभी दुःखों का नाश करनेवाले जिनधर्म को श्रेष्ठ बताया है । पूजा आदि शुभ कार्यों में व्रतसहित प्रवृत्ति करना पुण्य है और मोह क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम चारित्र है /धर्म है ऐसा स्पष्ट बताया है | मोक्षपाहुड़ :-इसमें १०६ गाथायें हैं । आत्मद्रव्य की महिमा का कथन है। इसे समझकर साधु अव्यावाध सुख को प्राप्त करता है। बहिरात्मपने को छोड़कर अन्तरात्मा बनकर परमात्मा का ध्यान करने की बात कही है। परद्रव्यों में आसक्त जीव, कर्मों से बंधता है और परद्रव्यों से विरक्त जीव, कर्मों से मुक्त होता है। आत्मज्ञान के बिना, कितने ही शास्त्रों को पढ़े वह सब कुज्ञान है और आत्मस्वभाव के विपरीत चारित्र का पालन करना बाल चारित्र है। -
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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