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________________ १२२ PSP नेवाण . . " शुद्धता चीतरागतो से प्राप्त होता है। मुनिराजन सुख " मायाग होता है और उसके अनुसार बाह्य क्रियाओं का पालन सहज ही होता है । जिनोक्त दीक्षाविधि, अट्ठाईस मूलगुण-अंतरंग-बहिरंगच्छेद, युक्ताहारविहार, मुनियों का परस्पर व्यवहार आदि विषयों को समझाया है। आत्मद्रव्य को मुख्य रखकर इस प्रकार का चरणानुयोग का प्रतिपादन अन्य किसी, शास्त्र : में देखने को नहीं मिलता। इस प्रकार इस शास्त्र में जिनशासन के मूल सिद्धान्तों कै बीजः विद्यमान हैं । इसमें प्रत्येक द्रव्य, गुण और. पर्याय की स्वतंत्रता की घोषणा अत्यंत जोरदार-और-स्पष्ट शब्दों में व्यक्त की है। दिव्यध्वनि से निकले हुए अनेक प्रयोजनभूत सिद्धान्तों का.सत्तिम वर्णन किया है समयसारमा लगानी गरी इस ग्रन्थ को समयपाहुड़ समयप्राभृत भी कहते हैं। इसमें कुल ४१५ गाथाएँ हैं। पूर्वरंग से प्रारंभ होकर जीव अजीव कर्ता-कर्म, पुण्य पापा आन, संवर, निर्जरा बन्ध, मोक्ष और सर्वविशुद्धज्ञान नामक ना अधिकार है। FE T पूर्वरंग-जोजीवादि ज्ञेयरूप पदार्थों को जानता है और परिणामता, है उसे समय कहते हैं | समय के स्वसमय और परसमय ऐसे दो. भेद किये हैं। जो जीव अपने दर्शन ज्ञान चारित्ररूप स्वभाव में स्थित है, वह स्वसमय है और जो जीव कर्मजन्य-अपनी अवस्थाओं को.
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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