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________________ आचार्य कुद्दुदेव का मोनो, जयपुर मान बालकाला ११७ प्रकृष्टेन तीर्थकरेन आभृतं प्रस्थापितं इति प्राभृतं । प्रकृष्टैराचार्यै विद्यावित्तवद्भिरामृतं धारितं व्याख्यातमानीतमिति वा प्राभृतम् । २ अर्थात् प्र + आभृत = जो प्रकृष्ट रूप से तीर्थकर के द्वारा प्रस्थापित किया है वह प्राभृत है। अथवा विद्या ही जिनका धन है. ऐसे प्रकृष्ट आचार्यों के द्वारा जो धारण किया गया है अथवा व्याख्यान किया गया है अथवा परम्परा रूप से लाया गया है, वह प्राभृत है । Coptic अतः प्राभृत शब्द इस बात का सूचक है कि जिस ग्रंथ के साथ यह प्राभृत शब्द संयुक्त है वह ग्रन्थ द्वादशांग वाणी से सम्बद्ध है: क्योंकि गणधर द्वारा रचित अंगों और पूर्वों में से १४ पूर्वों में प्राभृत नामक अवान्तर अधिकार है । कसायपाहुड़ और षटखण्डागम दोनों क्रम से पांचवें और दूसरे पूर्व से सम्बंधित हैं। पहला भाग युक्ति और आगम कुशलता की छाप से अंकित है और दूसरा भाग प्रतिपादन शैली से, किन्तु समयसार में तो दोनों की विशेषताएँ पद-पद पर दिखाई देती हैं । आचार्य कुन्दकुन्द के दोनों गुणों का निखार समयप्राभृत में अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है। निश्चय व्यवहार का सामंजस्य उनकी युक्ति और आगम की कुशलता का अपूर्व उदाहरण है । तथा उसके द्वारा की गई परमार्थ की सिद्धि उनके प्रतिपादन का चमत्कार है । इसतरह वास्तविक रूप से देखा जावे तो तीर्थंकर भगवान . महावीर की दिव्यध्वनि द्वारा उद्घोषित और परमपूज्य गौतमादि गणधरों से रचित वाणी जितनी महान और सर्वथा विश्वसनीय है उतनी ही महान् और सर्वथा विश्वसनीय आचार्य कुन्दकुन्द देव के ग्रन्थ हैं ।
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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