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________________ १०७ - आचार्य कुंदकुंददेव संक्षेप= दिव्यध्वनि का संक्षेप अर्थात् प्रवचनसार) जिस दिन इस महान शास्त्र की रचना पूर्ण हुई उसीदिन से मुनिसंघ में प्रवचनसार ग्रंथ का स्वाध्याय प्रारंभ हुआ | जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे थे वैसे-वैसे आचार्य पुंगव गंभीर, गंभीरतर और गंभीरतम होते जा रहे थे । जनसम्पर्क से अति अलिप्त होकर अंतरंग की गहराई में ही प्रवेश कर रहे थे। जब वे अतीन्द्रिय आनंद सरोवर में डूब जाते थे उस समय शिष्यवर्ग लेखनसामग्री और ताड़पत्र प्रतिदिन रख जाते थे। एक-दो प्रहर के बाद आकर देखने पर आचार्यदेव आत्मध्यान में लीन दिखते थे तब उन लिखित ताड़पत्रों को वहाँ से उठाकर नये ताड़पत्र वहाँ रख जाते थे । सायंकाल आकर देखने पर आचार्यदेव वहाँ मिलते | मात्र ताड़पत्र जैसे रखे थे उसी रूप में कोरे के कोरे ही मिलते थे। दूसरे दिन शिष्यों ने आचार्यश्री को ढूँढते-ढूँढते जाकर देखा तो आचार्यश्री एक निर्झरणी के पास वृक्ष के नीचे बैठकर ग्रंथरचना कर रहे थे। उनके सामने शिष्यों ने फिर लेखन सामग्री व ताड़पत्रों का समूह रख दिया । जब आचार्य शुभोपयोग में आते तब नैसर्गिक रीति से उत्पन्न आत्मा के अतीन्द्रिय आनंदामृत को अपने अनुभव प्रत्यक्ष से अक्षर मालिका में गाथाओं के रूप में गूंथते थे | भावसमाधि से क्षण-क्षण में उद्भूत आत्मानंद रूपी तंरगों पर मानो तैरती हुई आनेवाली गाथाओं को लिखने के लिए शारीरिक शक्ति अपर्याप्त होने से हाथ का कंट (ताड़पत्र पर लिखने की लेखनी) काँपता था। तथापि अन्तरंग में से उदित गाथाएँ व्यर्थ न जावें इसलिए हाथ का कंट अधिक वेग से काम करने में जुट जाता था। उस समय अंतरंग
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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