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आचार्य कुंदकुंददेव को जानकर वैराग्य परिणाम दृढ़ होने से संघ में समाविष्ट होते थे। जितनी मात्रा में श्रावकसमूह शिष्ट संस्कारित होता जा रहा था उतनी ही मात्रा में मुनिसंघ विशाल होता जा रहा था । इस तरह संघ स्वयमेव बढ़ रहा था । संघ बड़ा बनाने का विकल्प किसी को था ही नहीं, मात्र अपनी वीतरागता बढ़ाने का प्रयास अहो-रात्रि चलता था । पिडथ देश से विहार करते-करते उसी देश में एक चातुर्मास भी किया । इस तरह अनेक जगह वन-जंगलों में अनेक चातुर्मास करते करते अर्थात् सतत धर्मामृत की वर्षा करते-करते सात्विक अलौकिक आनंद समाज को देते हुए संघ को कल्याणकारक विहार हो रहा था।
साधु-संघ ने पश्चिमी घाट के हिंसक पशुओं के वास स्थानभूत अनेक वन-प्रदेशों में निर्भयता से निवास करते हुए आगुम्बे घाट के मार्ग से अत्युन्नत पर्वत पर आरोहण किया । वहाँ एक दिन संघ ने विश्राम किया। वहाँ से घाट उतर कर "तीर्थहल्ली” नामक गांव में आहार के लिए संघ आया । आहार के पश्चात तत्काल ही मुनिसंघ वन-जंगल की ओर चला गया ।
दूसरे दिन गुड्डेकेरी के पास वाले रास्ते से संघ आगे जाने के लिए सोच ही रहा था, कि इतने में आचार्यदेव पर्वत-श्रेणी के किसी आन्तरिक आकर्षण से प्रभावित होकर अनेक छोटे-बड़े पत्थर और कंकड़ों से सहित तथा काँटों से व्याप्त मार्ग से चलने लगे । पर्वत समान चट्टानों और गहरे भयानकं गतों की चिन्ता न करते हुए आगे बढ़ रहे थे । इस निविड़, भीषण वन में पैदल रास्ता भी कहाँ से होता? वहाँ से कौन गुजरता होगा कि जिसके चलने से वहाँ पैदल रास्ता बनता?