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________________ प्रवचनसार ] [ ६५ स्पर्श और शब्द पुद्गलद्रव्य में पाये जानेवाले गुण-पर्याय हैं और जीव उनसे भिन्न है; अतः उनका जीव में होना संभव नहीं है। अनिदिष्ट संस्थान और चेतना गुणवाले इस अव्यक्त भगवान आत्मा को अलिंगग्रहण जानो।" यहाँ 'अलिंगग्रहण' शब्द के प्राचार्य अमृतचन्द्र ने बीस अर्थ किए हैं, जो मूलतः पठनीय हैं । 'अलिंगग्रहण' के बीस अर्थों पर पूज्य श्री कानजी स्वामी के प्रवचन भी प्रकाशित हुए हैं, वे भी मूलतः स्वाध्याय करने योग्य हैं। भेदविज्ञान के अभाव में भावकर्म (मोह-राग-द्वेष), द्रव्यकर्म (ज्ञानावररणादि) एवं नोकर्म (शरीरादि) से बंधे इस प्रात्मा को बंधन और बंधन से मुक्ति का मार्ग बतलाते हुए निष्कर्ष के रूप में आचार्यदेव कहते हैं : "रत्तो बंधदि कम्म मुच्चदि कम्मेहि रागरहिवप्पा। एसो बंधसमासो जीवाणं जाण रिगच्छयवो ॥' रागी आत्मा कर्म बाँधता है और रागरहित प्रात्मा कर्मों से मुक्त होता है । निश्चय से बंध की प्रक्रिया का सार इतना ही है।" इसीप्रकार की एक गाथा समयसार में भी आती है । अधिकार का अन्त करते हुए आचार्यदेव लिखते हैं :"तम्हा तह जाणित्ता अप्पारणं जाणगं सभावेण । परिषज्जामि मत्ति उवडिवो णिम्ममत्तम्हि ॥3 इसप्रकार ज्ञायकस्वभावी आत्मा को जानकर मैं निर्ममत्व में स्थित रहता हुआ ममताभाव का त्याग करता हूँ।" __ आचार्यदेव 'मैं ममता का त्याग करता हूँ'- ऐसा कहकर मुमुक्षु बन्धुओं को ममता का त्याग करने को पावन प्रेरणा दे रहे हैं । १ समयसार, गाथा १७६ २ समयसार, गाथा १५० 3 प्रवचनसार, गाथा २००
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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