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________________ ४२ ] [ आचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम वस्तुतः बात यह है कि शुद्धनय के विषयभूत घर्थं (निज भगवान श्रात्मा) का आश्रय करनेवाले ज्ञानीजनों को अनंत संसार के कारणभूत प्रस्रव-बंध नहीं होते । रागांश के शेष रहने से जो थोड़े-बहुत आस्रव-बंध होते हैं, उनकी उपेक्षा कर यहाँ ज्ञानी को निरास्रव और निर्बंध कहा गया है। कहा तो यहाँ तक गया है कि : "यह निचोर या ग्रन्थ को, यहै परमरस पोख । तजं सुद्धनय बंध है, गहे सुमुनय मोख ॥" आस्रव का निरोध संवर है, अतः मिथ्यात्वादि मानवों के निरोध होने पर संवर की उत्पत्ति होती है । संवर से संसार का प्रभाव और मोक्षमार्ग का आरंभ होता है, अतः संवर साक्षात् धर्मस्वरूप ही है । कहा भी है : "तेस हेदू भरिणवा श्रज्भवासारखाणि सव्वदरिसीहि । मिच्छत्तं श्रण्णाणं अविरयभावो य जोगो य ॥ हेतु श्रभावे खियमा जायदि गारिणस्स प्रासव गिरोहो । प्रासवभावेरण विरगा जायदि कम्मस्स वि गिरोहो ॥ कम्मस्साभावेण य गोकम्मारणं पि जायदि गिरोहो । गोकम्मणिरोहेण य संसार गिरोहणं होदि ॥ २ सर्वदर्शी भगवान ने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप अध्यवसानों को आस्रव का कारण कहा है। मिथ्यात्वादि कारणों के अभाव में ज्ञानियों के नियम से आस्रवों का निरोध होता है और आस्रवभाव के बिना कर्म का निरोध होता है । इसीप्रकार कर्म के प्रभाव में नोकर्म का एवं नोकर्म के अभाव में संसार का हो निरोध हो जाता है ।" ર इसप्रकार हम देखते हैं कि संवर अनंत दुखरूप संसार का प्रभाव करनेवाला एवं अनंत सुखस्वरूप मोक्ष का कारण है । समयसार नाटक, आम्रवद्वार, छन्द १३ समयसार, गाथा १६० से १६२
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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