________________
२८ ]
[ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम करना, हास्य मत करना; क्योंकि सत्पुरुषों का स्वभाव गुण-ग्रहण करने का ही होता है - यह मेरी परोक्ष प्रार्थना है।"
इस युग के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर की अचेलक परम्परा में प्राचार्य कुन्दकुन्द का अवतरण उससमय हुआ, जब भगवान महावीर को अचेलक परम्परा को उन जैसे तलस्पर्शी अध्यात्मवेत्ता एवं प्रखरप्रशासक आचार्य की आवश्यकता सर्वाधिक थी। यह समय श्वेताम्बर मत का प्रारम्भकाल ही था। इससमय वरती गई किसी भी प्रकार की शिथिलता भगवान महावीर के मलमार्ग के लिए घातक सिद्ध हो सकती थी।
भगवान महावीर की मूल दिगम्बर परम्परा के सर्वमान्य सर्वश्रेष्ठ प्राचार्य होने के नाते आचार्य कुन्दकुन्द के समक्ष सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दो उत्तरदायित्व थे। एक तो द्वितीय श्रुतस्कन्धरूप परमागम (मध्यात्म-शास्त्र) को लिखितरूप से व्यवस्थित करना और दूसरा शिथिलाचार के विरुद्ध सशक्त आन्दोलन चलाना एवं कठोर कदम उठाना । दोनों ही उत्तरदायित्वों को उन्होंने बखूबी निभाया ।
प्रथम श्रुतस्कन्धरूप आगम की रचना धरसेनाचार्य के शिष्य पुष्पदन्त और भूतबली द्वारा हो रही थी। द्वितीय श्रुतस्कन्धरूप परमागम का क्षेत्र खाली था। मुक्तिमार्ग का मूल तो परमागम ही है। अतः उसका व्यवस्थित होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य था; जिसे कुन्दकुन्द जैसे प्रखर आचार्य ही कर सकते थे।
जिनागम में दो प्रकार के मलनय बनाये गये हैं :-निश्चयव्यवहार और द्रव्याथिक-पर्यायाथिक । समयसार व नियमसार में निश्चय-व्यवहार की मुख्यता से एवं प्रवचनसार व पंचास्तिकाय में द्रव्यार्थिक-पर्यायाथिक की मुख्यता से कथन करके उन्होंने अध्यात्म और वस्तुस्वरूप - दोनों को बहुत ही अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है। उनके ये महान ग्रन्थ आगामी ग्रन्थकारों को आज तक आदर्श रहे हैं, मार्गदर्शक रहे हैं।
' समयसार प्रस्तावना