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[प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम आचार्य जयसेन के समय (विक्रम की बारहवीं शताब्दी में) यह कथा प्रत्यधिक प्रसिद्ध थी।
विक्रम की दसवीं सदी के प्राचार्य देवसेन के दर्शनसार में समागत गाथा में भी कुन्दकुन्दाचार्य के विदेहगमन की चर्चा की गई है। दर्शनसार के अन्त में लिखा है कि मैंने यह दर्शनसार अन्य पूर्वाचार्यों की गाथाओं का संकलन करके बनाया है। इस स्थिति में यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द के विदेहगमन की चर्चा करने वाली गाथा भी दसवीं शताब्दी के बहुत पहले की हो सकती है।
इस सन्दर्भ में श्रुतसागरसूरि का निम्नांकित कथन भी द्रष्टव्य है :
श्रीपअनन्दिकुन्दकुन्वाचार्यवक्रनीवाचार्यलाचार्यगृद्धपिच्छाचार्यनामपञ्चकविराजितेन चतुरंगुलाकाशगमनविना पूर्वविवेहपुण्डरीकिणीनगरवन्वितसीमन्धरापरनामस्वयंप्रभजिनेनतच्छुतज्ञानसंबोधित तभरतवर्षभन्यजीवेन श्रीजिनचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वजन विरचिते षट्नामृतग्रन्ये.
श्री पद्मनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य एवं गृखपिच्छाचार्य-पंचनामधारी; जमीन से चार अंगुल ऊपर आकाश में चलने की ऋद्धि के धारी; पूर्वविदेह की पुण्डरीकिणी नगरी में विराजित सीमन्धर अपरनाम स्वयंप्रभ तीर्थंकर से प्राप्त ज्ञान से भरतक्षेत्र के भव्यजीवों को संबोधित करनेवाले; श्री जिनचन्द्रसूरि भट्टारक के पट्ट के पाभरण; कलिकालसर्वज्ञ (श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव) द्वारा रचित षट्प्राभृत ग्रन्थ में.......।"
उक्त कथन में कुन्दकुन्द के पाँच नाम, पूर्व विदेहगमन, भाकाशगमन और जिनचन्द्राचार्य के शिष्यत्व के अतिरिक्त उन्हें कलिकालसर्वज्ञ भी कहा गया है। ___ भाचार्य कुन्दकुन्द के सम्बन्ध में प्रचलित कथाओं का अवलोकन भी आवश्यक है।