________________
माचार्य कुन्दकुन्द ]
. [१३ बाद ही प्रचलित हुआ, परन्तु इतना प्रचलित हुआ कि मूल नाम भी विस्मृत-सा हो गया।
उक्त नामों के अतिरिक्त एलाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य एवं गृद्धपिच्छाचार्य भी आपके नाम कहे जाते हैं।' इस सन्दर्भ में विजयनगर के एक शिलालेख में एक श्लोक पाया जाता है, जो इसप्रकार है :
"प्राचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामुनिः ।
एलाचार्यों गृखपिच्छ इति तन्नाम पञ्चषा ॥" उक्त सभी नामों में 'कुन्दकुन्दाचार्य' नाम ही सर्वाधिक प्रसिद्ध नाम है । जब उनके मूल नाम 'पद्मनन्दी' को भी बहुत कम लोग जानते हैं तो फिर शेष नामों की तो बात ही क्या करें?
कुन्दकुन्द जैसे समर्थ प्राचार्य के भाग्यशाली गुरु कौन थे? इस सन्दर्भ में अन्तर्साक्ष्य के रूप में बोधपाहुड को जो गाथाएं उद्धृत की जाती हैं, वे इसप्रकार हैं :"सद्दवियारो हो भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं रणायं सीसेरण य भद्दबाहुस्स ॥६१॥ बारस अंगवियारणं चउदसपुष्यंगविउलवित्थरएं। सुयपाणि भद्दबाहू गमयगुरू भयवनो जयउ ॥६२॥
जो जिनेन्द्रदेव ने कहा है, वही भाषासूत्रों में शब्दविकाररूप से परिणमित हुआ है। उसे भद्रबाहु के शिष्य ने वैसा ही जाना है और कहा भी वैसा ही है।
बारह अंग और चौदह पूर्वो का विपुल विस्तार करनेवाले श्रुतज्ञानी गमकगुरु भगवान भद्रबाहु जयवन्त हों।"
प्रथम (६१वीं) गाथा में यह बात यद्यपि अत्यन्त स्पष्ट है कि बोधपाहुड के कर्ता आचार्य कुन्दकुन्द भद्रबाहु के शिष्य हैं, तथापि ' श्रुतसागरसूरि : षट्प्राभूत-टीका, प्रत्येक प्राभूत की अंतिम पंक्तियाँ २ तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा, खण्ड २, पृष्ठ १०२ पर उद्धृत