________________ 112 ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम से विरत आत्मा मुक्ति को प्राप्त करता है / इसप्रकार स्वद्रव्य से सुगति और परद्रव्य से दुर्गति होती है - ऐसा जानकर हे प्रात्मन् ! स्वद्रव्य में रति और परद्रव्य से विरति करो। प्रात्मस्वभाव से भिन्न स्त्री-पुत्रादिक, धन-धान्यादिक सभी चेतन-अचेतन पदार्थ 'परद्रव्य' हैं और इनसे भिन्न ज्ञानशरीरी, अविनाशी निज भगवान प्रात्मा 'स्वद्रव्य' है। जो मुनि परद्रव्यों से पराङ मुख होकर स्वद्रव्य का ध्यान करते हैं, वे निर्वाण को प्राप्त करते हैं / अतः जो व्यक्ति संसाररूपी महार्णव से पार होना चाहते हैं, उन्हें अपने शुद्धात्मा का ध्यान करना चाहिए / प्रात्मार्थी मनिराज सोचते हैं कि मैं किससे क्या बात करूँ; क्योंकि जो भी इन आँखों से दिखाई देते हैं, वे सब शरीरादि तो जड़ हैं, मूर्तिक हैं, अचेतन हैं, कुछ समझते नहीं हैं और चेतन तो स्वयं ज्ञानस्वरूप है। जो योगी व्यवहार में सोता है, वह अपने आत्मा के हित के कार्य में जागता है और जो व्यवहार में जागता है, वह अपने कार्य में सोता है। - ऐसा जानकर योगिजन समस्त व्यवहार को त्यागकर प्रात्मा का ध्यान करते हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की परिभाषा बताते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि जो जाने सो ज्ञान, जो देखे सो दर्शन और पुण्य और पाप का परिहार चारित्र है। अथवा तत्त्वरुचि सम्यग्दर्शन, तत्त्व का ग्रहण सम्यग्ज्ञान एवं पुण्य-पाप का परिहार सम्यक्चारित्र है। तपरहित ज्ञान और ज्ञानरहित तप-दोनों ही अकार्य हैं, किसी काम के नहीं हैं; क्योंकि मुक्ति तो ज्ञानपूर्वक तप से होती है। ध्यान ही सर्वोत्कृष्ट तप है, पर ज्ञान-ध्यान से भ्रष्ट कुछ साधुजन कहते हैं कि इस काल में ध्यान नहीं होता, पर यह ठीक नहीं है, क्योंकि आज भी सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के धनी साधुजन प्रात्मा का ध्यान कर लौकान्तिक देवपने को प्राप्त होते हैं और वहाँ से चयकर आगामी भव में निर्वाण की प्राप्ति करते हैं। पर जिनकी बुद्धि पापकर्म से