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[ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम दिगम्बर जिनमन्दिरों में विराजमान लगभग प्रत्येक जिनबिम्ब (जिनप्रतिमा या जिनमूर्ति) पर 'कुन्दकुन्दान्वय' उल्लेख पाया जाता है। परवर्ती ग्रन्थकारों ने आपको जिस श्रद्धा के साथ स्मरण किया है, उससे भी यह पता चलता है कि दिगम्बर परम्परा में आपका स्थान बेजोड़ है । आपकी महिमा बतानेवाले शिलालेख भी उपलब्ध हैं ।
कतिपय महत्त्वपूर्ण शिलालेख इसप्रकार हैं :
"कुन्दपुष्प की प्रभा धारण करनेवाली जिनकी कीर्ति द्वारा दिशायें विभूषित हुई हैं, जो चारणों के - चारण ऋद्धिधारी महामुनियों के सुन्दर कर-कमलों के भ्रमर थे और जिन पवित्रात्मा ने भरतक्षेत्र में श्रुत की प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किसके द्वारा वन्य नहीं हैं।
यतीश्वर (श्री कुन्दकुन्दस्वामी) रजःस्थान पृथ्वीतल को छोड़कर चार अंगुल ऊपर गमन करते थे, जिससे मैं समझता हूँ कि वे अन्तरव बाह्य रज से प्रत्यन्त अस्पृष्टता व्यक्त करते थे (अर्थात् देमन्तरंग में रागाविमल से तथा बाह्य में घल से अस्पृष्ट थे)।" -
दिगम्बर जैन समाज कुन्दकुन्दाचार्यदेव के नाम एवं काम (महिमा) से जितना परिचित है, उनके जीवन से उतना ही अपरिचित है। लोकेषणा से दूर रहनेवाले जैनाचार्यों की यह विशेषता रही है कि महान से महान ऐतिहासिक कार्य करने के बाद भी अपने व्यक्तिगत जीवन के सम्बन्ध में कहीं कुछ उल्लेख नहीं करते । आचार्य कुन्दकुन्द भी इसके अपवाद नहीं हैं। उन्होंने भी अपने बारे में कहीं कुछ नहीं
' वन्द्यो विमुर्मुविन कैरिह कोण्डकुन्दः कुन्द-प्रभा-प्रणयि-कीति-विभूषिताशः । यश्चारु चारण-कराम्बुज-चञ्चरीकश्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठान् ।
- जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, चन्द्रगिरि शिलालेख, पृष्ठ १०२ २ ......................................"कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ।। रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्य ऽपि संव्यञ्जयितुं यतीशः । रजःपदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरङ्गलं सः ॥ - जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, विन्ध्यगिरि शिलालेख, पृष्ठ १९७-१९८