SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ ] [ सूत्र काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ पूरणार्थमनर्थकम् । २, १, ६ । पूरणमात्रप्रयोजनमव्ययपदमनर्थकम् । दण्डापूपन्यायेन पदमन्य दप्यनर्थकमेव । संज्ञा और संस्कार इन 'पञ्च स्कन्धों' में से प्रथम 'स्कन्ध' के लिए प्रयुक्त होता है और उससे विषय तथा इन्द्रिय का ग्रहण होता है ] और नान्तरीयक [ पद मुख्य रूप से न्यायादि दर्शन में अविनाभाव या 'व्याप्ति' के अर्थ में प्रयुक्त होता है ] यह दोनो पद लोक में प्रयुक्त नहीं होते इसलिए 'श्रप्रतीत पद' [ दोष. ] कहलाते है । [ नवीन आचार्यों ने भी इस दोष को 'अप्रतीतत्व' नाम से पद दोष कहा है ] ॥८॥ [ केवल पाद की ] पूर्ति के लिए प्रयुक्त पद अनर्थक होते है । [ श्लोक में ] केवल [पाद ] पूति मात्र के लिए प्रयुक्त होने वाले [च आदि ] श्रव्यय पद अनर्थक [ पद कहलाते ] है । 'दण्डापूपिका न्याय' से अन्य पद भी अनर्थक होते है । श्लोक रचना करते समय कभी-कभी वर्णों की गणना मे एक दो अक्षरो की कमी पड़ती है और उसके लिए कोई अधिक उपयुक्त शब्द कवि को नही मिलता है उस समय कवि च, तु, हि, खलु, वे, श्रादि श्रव्ययो का प्रयोग करके उसकी पूर्ति कर देता है। उनसे छन्द के पाद की पूर्ति तो हो जाती है, परन्तु उसका वहा कोई अर्थ नहीं होता है । इसलिए इस प्रकार के पदो का प्रयोग 'अनर्थक पद' कहलाता है। जब इन अव्यय पदों को भी अनर्थक, या दोपयुक्त पद कहा जा सकता है तब अन्य पद यदि कहीं निष्प्रयोजन प्रयुक्त किए जाय तो 'दण्डापूपिका' न्याय से वह अन्य पद भी अनर्थक ही होगे । ' दण्डापूपिका- न्याय' का अभिप्राय यह है कि जैसे किसी ने पूप अर्थात् पुत्रा या गुलगुला कपडे में रख कर अपने डडे में बाध कर रख दिए थे । उसके किसी दूसरे साथी ने उसको रखते देख लिया। जब वह कही बाहर गया तो उस दूसरे साथी ने पुए तो लेकर स्वय खा लिए और डंडा उठाकर कहीं इधर-उधर फेंक दिया । जब पहिला पुरुष लौट कर श्राया तो उसने अपना डढा जहा रखा था वहा न देख कर अपने साथी से पूछा कि बडा कहा गया ? तो उसने उत्तर दिया कि मालूम नही, जान पड़ता है चूहे डडा उठा ले गए । पहिले आदमी को भूख लग रही थी । उसे उस समय डंडे की इतनी श्रावश्यकता न थी जितनी पुत्रों की। इसलिए उसने, अच्छा फिर पुए कहा गए ? इस प्रकार का I
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy