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________________ सूत्र २०] प्रथमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [३१ तस्यां वैदामर्थगुणसम्पदास्वाद्या भवति ॥२०॥ तदुपारोहादर्थगुणलेशोऽपि । १, २, २१ । तदुपधानतः खल्वर्थलेशोऽपि स्वदते । किमङ्ग पुनरर्थगुणसम्पत् । तथा चाहुः - ___ उस वैदर्भी [रीति ] में अर्थगुणों का वैभव प्रास्वाद के योग्य होता है। वामन ने जो दश गुण माने हैं उनको शन्दगुण तथा अर्थगुण दोनों रूप मे माना है। उनके नाम दोनों जगह समान हैं परन्तु लक्षण दोनों जगह भिन्न-भिन्न हैं। इनमें से शब्दगुणों का क्षेत्र कुछ सीमित है परन्तु अर्थगुणों का क्षेत्र बहुत व्यापक है। उसमें वस्तुतः कान्य के उपयोगी और उत्कर्षाधायक प्रायः समस्त अंशों का समावेश हो जाता है । (१) अर्थ की प्रौदि 'प्रोज' नाम से, (२) उक्ति का वैचित्र्य 'माधुर्य' नाम से, (३) नवीन अर्थ की कल्पना अर्थदृष्टिरूप 'समाधि' नाम से,(४) रसो का प्रकर्ष कान्ति नाम से, (५) अर्थवैमल्य प्रसाद नाम से, इत्यादि रूप से काव्य के उत्कर्षाधायक समस्त अंशों का समावेश अर्थगुणों के अन्तर्गत हो जाता है । वह सारी अर्थ सम्पत्ति वैदर्भी रीति के अन्तर्गत आस्वाद्य अथवा अलौकिक चमत्कार रूप से अनुभव योग्य होती है। इसीलिए वैदी रीति विशेषरूप से ग्राह्य और प्रशंसा के योग्य मानी गई है ॥२०॥ वैदर्भी रीति में अर्थगुणों की सम्पत्ति या वैभव तो अनुभव योग्य होता ही है परन्तु यदि उसमें गुणो का पूर्ण विकास न हुआ हो और लेश मात्र ही हो तो उस लेशमात्र का भी सौन्दर्य कुछ अलौकिक रूप से मासने लगता है। जिसके कारण उसमें वर्णित एक छोटी-सी बात भी बड़ी चमत्कार युक्त प्रतीत होती है। इसी बात को ग्रन्थकार अगले सूत्र में कह रहे हैं। उस [वैदर्भी रीति ] के सहारे मे अर्थगुणों का लेश मात्र भी आस्वाद योग्य हो जाता है [अर्थगुण-सम्पत्ति की तो बात ही क्या।] उस [वैदर्भी रीवि] के सहारे से अर्थ का लेग [सामान्य अर्थ ] भी आस्वाद योग्य हो जाता है अर्थगुण सम्पत्ति की तो बात ही क्या कहना । जैसा कि [ वैदर्भी रीति की प्रशंसा में लिखे गए निम्न श्लोकों में] कहा है
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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