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हीं लक्षित किया जा सकता है । उदाहरण के लिए उपन्यास और कहानी मुक्तक और गीत के रूप-भेद से उनकी शैली में भी निश्चय ही भेद रहता है
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उपर्युक्त विवेचन अत्यन्त सार्थक होने के अतिरिक्त सर्वथा आधुनिक भी है । यूरोप के काव्यशास्त्र में शास्त्रीय - श्रथवा छद्म शास्त्राय परम्परानों के बाह्य मूल्यों के विरुद्ध मनोविज्ञान सम्मत आन्तरिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के निमित्त जो कार्य उन्नीसवीं शताब्दी में किया गया (यद्यपि वहां भी लोंजाइनस, दांते आदि अनेक प्राचीन श्राचार्य उसका संकेत सेकड़ो हज़ारों वर्ष पूर्व कर चुके थे), उसे हमारे यहा श्रानन्दवर्धन आठवी-नवीं शताब्दी में विधिवत् सम्पादित कर चुके थे ।
रीति का प्रवृत्ति, वृत्ति तथा शैली से अन्तर
शास्त्र में रीति के सहधर्मी कुछ अन्य काव्यांगों का भी प्रयोग मिलता है— उनसे पार्थक्य किये बिना रीति का वास्तविक रूप उद्घाटित नहीं हो
सकता ।
रीति और प्रवृत्ति कालक्रमानुसार सबसे पहले तो प्रवृत्ति को लीजिए । प्रवृत्ति का विवेचन सर्व प्रथम भरत में और फिर उनके अनुकरण पर राजशेखर, भोज और शिंगभूपाल आदि में मिलता है । जैसा कि मैंने आरम्भ में विवेचन किया है, भरत के अनुसार प्रवृत्ति उस विशेषता का नाम है जो नाना देशों के वेश, भाषा तथा श्राचार का ख्यापन करे ।" इस प्रकार प्रवृत्ति का सम्बन्ध केवल भाषा से ही न होकर वेश तथा प्रचार से भी है— जबकि रीति का सम्बन्ध केवल भाषा से ही है। प्रवृत्ति पूरे रहन-सहन के ढंग से सम्बन्ध रखती है, और रीति केवल बोलने तथा लिखने के ढंग से । प्रवृत्ति के मूल तत्व प्रायः बाह्य तथा मूर्त हैं — रीति के आन्तरिक । श्रतएव प्रवृत्ति का निश्चयात्मक आधार भौगोलिक है परन्तु रोति का श्राधार कवि-स्वभावगत ही अधिक है । प्रवृत्ति व्यवहारात्मक है, इसीलिए राजशेखर ने उसको केवल वेश- विन्यास-क्रम ही माना है, रीति एकान्त साहित्यिक ।
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१ पृथिव्या नाना देशवेशभाषाचारवार्ता ख्यापयतीति प्रवृत्ति
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(नाट्यशास्त्र)